व्यंग्यकार - डॉ महेन्द्र अग्रवाल |
संदीप सृजन का सृृजन संसार
व्यंग्यकार - डॉ महेन्द्र अग्रवाल |
हिन्दी भाषा भारत में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। यह हम भारतीयों की पहचान है। भारत में अनेक भाषाएं हैं मगर फिर भी हिन्दी का प्रभाव सर्वत्र देखा जा सकता है। विश्वभर में करोड़ों लोग हिन्दी भाषा का प्रयोग करते हैं। हिन्दी भाषा एक ऐसी भाषा है,जिसमें जो हम लिखते हैं,वही हम बोलते हैं उसमें कोई बदलाव नहीं होता है। हिन्दी भाषा की सहयोगी लिपि देवनागरी इसे पूरी तरह वैज्ञानिक आधार प्रदान करती है।
इन सभी कारणों से 14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा ने यह निर्णय लिया कि हिन्दी केन्द्र सरकार की आधिकारिक भाषा होगी और हिन्दी को राजभाषा बनाने का निर्णय लिया और इसी निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने तथा हिन्दी को प्रत्येक क्षेत्र में प्रसारित करने के लिये वर्ष 1953 से पूरे भारत में 14 सितम्बर को प्रतिवर्ष हिन्दी-दिवस के रूप में मनाया जाने लगा ।
हिन्दी को समृद्ध करने में सबसे बड़ा योगदान संस्कृत का है। संस्कृत विश्व की सबसे प्राचीन भाषा मानी गई है और हिन्दी का जन्म संस्कृत की कोख से ही हुआ है। कई संस्कृत शब्दों का प्रयोग हिन्दी में बिना किसी परिवर्तन के किया जाता है,उन शब्दों का उच्चारण और ध्वनि भी संस्कृत के समान ही है। इस कारण हिन्दी को एक विशाल शब्द कोष जन्म के साथ ही संस्कृत से मिला है,जो उसके अस्तित्व को विराट बनाता है ।
हिन्दी यूँ तो हमें परम्परा से मिली भाषा है,इस कारण से इसे पैत्रृक सम्पत्ति ही माना जाना चाहिए । जब हम छोटे बच्चे थे और बोलना सीख रहे थे,उस समय हमारे परिवेश की जो भाषा थी वह उम्र के किसी भी पड़ाव पर जाने के बाद भी सहज और सरल ही लगती है।मगर अब लगता है कि अंग्रेजी का प्रभुत्व हिन्दी पर प्रभाव डाल रहा है। हिन्दी का अस्तित्व तभी रहेगा जब हम उसे दिल में बैठा ही रखेंगे । हमें अगली पीढ़ी तक हिन्दी को प्रभावी स्वरुप में पहुंचाना होगा। याद रहे बोलने वालों की, समझने वालों की संख्या में जब वृद्धि होती है, तो भाषा का विस्तार होता चला जाता है हिन्दी के साथ यही होना चाहिए। हिन्दी को अब सिर्फ राजभाषा नहीं राष्ट्र भाषा का सम्मान मिलना चाहिए।
संदीप सृजन
ए-99 विक्रमादित्य क्लॉथ मार्केट
उज्जैन 456006 (म,प्र)
मो. 9926061800
व्यंग्य लिखा नहीं जाता पैदा हो जाता है। मेरा ऐसा मानना है। क्योंकि संसार में हर पल कुछ न कुछ घटता है। उस घटे हुए में से एक टीस जो निकलती है। वह व्यंग्य है। जो हुआ उसमें ये नहीं होना था। तब व्यंग्य पैदा होता है। "सजग का माइक्रोस्कोप" के नाम से संजय जोशी 'सजग' का पहला व्यंग्य संग्रह आया है। संजय जोशी के नाम के साथ सजग उपनाम उनकी जागृत चेतना का पर्याय है। वे समाज, राजनीति,साहित्य,संस्कृति,धर्म,मिडिया,शिक्षा में जो विसंगतियाँ है,जो विडम्बना है उनको अपने दिमाग के माइक्रोस्कोप से बड़े ध्यान से देखते है और अपनी रिपोर्ट इस संग्रह के रूप में समाज को देते है। उनकी रिपोर्ट आम आदमी को समझ आए और गुदगुदी दे जाए ये उनका प्रयास है।
संजय जोशी सजग और संदीप सृजन |
"अच्छा कवि बहुत ज़िद्दी होता है और कविता लिखते समय अपने विवेक और शक्ति के अलावा किसी और की नहीं मानता है।" साहित्यकार विष्णु खरे की यह बात उज्जैन के गौरव गीतकार हेमंत श्रीमाल जी पर सटीक बैठती है।श्रीमाल जी जब गीत बुनते है तो कागज़ और क़लम का उपयोग नहीं करते बल्कि उस गीत को अपने मस्तिष्क में पूरा तैयार करते है और पूरा होने के बाद कागज़ पर आकार देते है। याने सिर्फ अपने विवेक याने बुद्धि और शक्ति याने स्मरण शक्ति का ही उपयोग कर रचनाकर्म करते है। यही वजह है कि हेमंत जी के गीतों में एक अलग चिंतन है जो समाज को नये विचार दे कर सोचने को मजबूर करता है। उनने हमेशा क्वालिटी पर ध्यान दिया है। उनका स्वर भी सधा हुआ है। जिनने उनको प्रत्यक्ष सुना है। वे जानते है कि कवि सम्मेलनों में उनके गीतों पर जनता ने अक्सर खड़े होकर तालियाँ बजायी है।
गीतकार श्री हेमन्त श्रीमाल |
"आईने में तैरती सच्चाइयाँ" शीर्षक से हाल ही में हेमंत श्रीमाल जी का पहला गीत संग्रह म.प्र. साहित्य अकादमी के सहयोग से प्रकाशित हुआ है। जिसमें उनके राष्ट्रीय और सामाजिक चेतना के गीतों का संकलित है। 60 गीतों के इस संकलन में जो गीत है उनमें से अधिकांश गीत वे मंचों पर सुनाते रहते है। और श्रोताओं का जो प्रतिसाद मिलता है वो देखने लायक होता है। श्रीमाल जी के गीतों पर लिखना सूरज को दीया दिखाने जैसा है। फिर भी एक कोशिश उनके इस संग्रह से पाठकों परिचित करवाने के लिए कर रहा हूँ।
हेमंतजी एक मे गीत में कहते है कि-
शहीदों की शपथ तुझको कलम लिख धार की बातें।
लहू को गर्म रखने हित तनिक तलवार की बातें।
तब वे कलमकारों से आव्हान करते नजर आते है। और कलमकार को अपने नैतिक दायित्व से परिचित करवाते है।
मजदूर की पीड़ा को स्वर देते हुए वे कहते है कि-
सांसे गिरवी रखकर भी हम आस नहीं कर पाते है।
सपनों की क्या बात करें जब पेट नहीं भर पाते है।
श्रीमाल जी की मंचों की बहुत प्रसिद्ध रचना चंबल की बेटी का बयान मानवता को झकझोर देने वाली रचना है। पढ़ते हुए रोंगटे खड़े करने वाली है। सदी के नाम रचना में जो बदलाव सभ्यता में आए है उनको बहुत दमदारी के साथ वे कहते है-
दादागिरी का राज है गुण्डों का जोर है
पग-पग पे लूट और लुटेरों का शोर है
कैसा ये लोकतन्त्र है कैसा ये दौर है
इक दूसरे के वास्ते हर दिल में चोर है।
राजनीति और समाजिक विषमता पर उनकी रचना *जलता हुआ सवाल* मंचों की अजेय रचना है। वे लिखते है-
सत्ता में पैठ होते ही मलखान हो गये
पहले ही क्या कमी थी जो बेइमान हो गये
रिश्वत की चलती-फिरती इक दूकान हो गये
कल के भिखारी आज के धनवान हो गये
देश के हालात और तात्कालीन स्थिती पर लिखे गीत में हेमंत जी के ये शब्द कालजयी है-
जब तक कुर्सी ही सब कुछ है, और कुछ भी ईमान नहीं
तब तक मेरे देश तुम्हारा होना है कल्याण नहीं
सरकारी घोटालों पर केन्द्रीत रचना देखो नाटक नंगों का, भोपाल गैस कांड पर लिखी गूंगे का बयान, पंजाब मे हुए दंगों पर धधकते हुए पंजाब के नाम, देश को जब सोना विदेशों में गिरवी रखना पड़ा तब तुच्छ भिखारी बना दिया, दक्षिण भारत में आए तूफान के बाद की लच्चर सरकारी व्यवस्था पर उत्तर दो, था ध्यान कहॉ?, अबला पर हुए अत्याचार पर लिखी फिर एक मंदिर तोड़ दिया, बहु को जिंदा जलाए जाने वाले हादसों पर तेल झमाझम झार दिया, पुतलीबाई के चम्पा से नगरवधु बनने तक की कहानी कहती रचना चम्पा घर से भाग गई, कोरोना महामारी के के दौरान हुए लॉक डाउन की स्थिती पर लिखी रचना लॉक डाउन अप्रैल 2020- पैकेज और प्यार विशेष रचनाओं की श्रेणी में आती है।
सामाजिकता व दार्शनिकता वाली रचनाओं में गौ हत्या स्वीकार नहीं, कांच का मकान आदमी, हर मुफलिस धनवान हुआ, मौत का अहसास के अलावा भी सारी रचना श्रेष्ठतम है। श्रीमाल जी की ग़ज़लें भी चिंतन से भरपूर है।
पुस्तक आईने में तैरती सच्चाइयाँ बार बार पढ़ी जाने वाली कृति है। कोई भी गीत खुल जाए पूरा पढ़े बगैर मन नहीं मानता । यह कृति काफी देर से उन्होनें समाज के बीच रखी है ।आवरण से अंत तक पुस्तक सुंदर है। इस कृति के लिए श्रद्देय हेमंत श्रीमाल जी को बधाई। और आने वाली कृतियों के लिए शुभकामनाएँ...।
पुस्तक - आईने में तैरती सच्चाइयाँ
गीतकार - हेमन्त श्रीमाल
प्रकाशक- ऋषिमुनि प्रकाशन उज्जैन
पृष्ठ- 104 (सजिल्द)
मूल्य- 450
चर्चाकार- संदीप सृजन, उज्जैन
sandipsrijan999@gmail.com
महात्मा
गांधी और लाल बहादुर शास्त्री ऐसे दो महामानव जो भारत के भाग्य विधाता रहे, जिनकी
विचार धारा एक दुसरे की पूरक रही। जो देश के लिए जिए और देश के हित में ही काल के
ग्रास बने । देश और समाज के प्रति दोनों की समर्पण भावना में किंचित मात्र भी
संदेह नहीं किया जा सकता है। ऐसे दोनों महापुरुषों का जन्म दिन एक साथ होना भी
किसी महान संयोग से कम नहीं है।
गांधीजी अहिंसा
के प्रबल समर्थक, शांति के अग्रदूत रहे। तो शास्त्री जी दृढ़ इच्छा शक्ति के व्यक्तित्व
बनकर समाज में उभरे। गांधी जी के जीवन ने न केवल भारतीय समाज को प्रभावित किया वरन
विश्व के तमाम देशों में उनके जीवन को आदर्श जीवन के आधार माना जाता है। तो
शास्त्री जी की नैतिक कार्यशैली और दूरदर्शिता का कोई सानी नहीं है। वर्तमान समय
में बढ़ती भूखमरी, बेरोजगारी, विश्व
हिंसा, वैश्विक आर्थिक मंदी और आपसी वैमनस्यता जैसी समस्याओं
से सारा विश्व आहत है। ऐसे समय में महात्मा गांधी और शास्त्री जी के विचारों की
प्रासंगिकता और अधिक हो जाती है। तथा उनके कार्यों के अनुसरण से विश्व की तमाम
समस्याओं का हल हो सकता है।
गांधी जी
अपने समय के तमाम महापुरुषों में बिरले थे क्योंकि उन्होंने सत्य और नैतिक जीवन को
सिर्फ जीया ही नहीं लिखने का साहस भी किया। अपने आदर्शो को तो समाज के सामने रखा
पर अपने जीवन की बुराइयों को छुपाने की कोशिश भी नहीं की। यह उनकी सत्यनिष्ठा को
दर्शाता है।
गांधी जी
को वैष्णव संस्कार अपनी माँ से जनम घुट्टी के साथ मिले थे। गांधी जी के जीवन में
नरसी मेहता के भजन वैष्णव जन तो तेने कहिये का बहुत प्रभाव रहा। इस भजन को ही
गांधीजी ने अपने जीवन में अंगीकार किया। इस भजन में उल्लेखित गुण परोपकार, निंदा न करना, छल कपट रहित जीवन, इंद्रियों पर नियंत्रण, सम दृष्टि रहना, पर स्त्री को माता मानना, असत्य नहीं बोलना, चोरी न करना को जीवन पर्यंत
अपनाया और इन्हीं के द्वारा भारत में राम राज की स्थापना की संकल्पना की। ये गुण
ही मोहनदास गांधी को महात्मा गांधी बनाते है।
वहीं लाल
बहादुर शास्त्री बचपन से अभावों में पले और बड़े हुए लेकिन अपने मितव्ययी और
आत्मनिर्भर स्वभाव के चलते हर हाल में खुश रहने वाले व्यक्तियों में थे। बड़े होने
के साथ ही लाल बहादुर शास्त्री विदेशी दासता से आजादी के लिए देश के संघर्ष में
अधिक रुचि रखने लगे। वे महात्मा गांधी द्वारा चलाए जा रहे स्वाधिनता आंदोलन से
प्रभावित थे। लाल बहादुर शास्त्री जब केवल ग्यारह वर्ष के थे तब से ही उन्होंने
राष्ट्रीय स्तर पर कुछ करने का मन बना लिया था।
गांधी जी
ने असहयोग आंदोलन में शामिल होने के लिए अपने देशवासियों से आह्वान किया था, इस समय लाल बहादुर
शास्त्री केवल सोलह वर्ष के थे। उन्होंने महात्मा गांधी के इस आह्वान पर अपनी
पढ़ाई छोड़ देने का निर्णय कर लिया था। उनके इस निर्णय ने उनकी मां की उम्मीदें
तोड़ दीं। उनके परिवार ने उनके इस निर्णय को गलत बताते हुए उन्हें रोकने की बहुत
कोशिश की लेकिन वे इसमें असफल रहे। लाल बहादुर ने अपना मन बना लिया था। उनके सभी
करीबी लोगों को यह पता था कि एक बार मन बना लेने के बाद वे अपना निर्णय कभी नहीं
बदलेंगें क्योंकि बाहर से विनम्र दिखने वाले लाल बहादुर अन्दर से चट्टान की तरह
दृढ़ हैं।
गांधीजी
आधुनिक भारत के अकेले नेता थे जो किसी एक वर्ग एक विषय एक लक्ष्य को लेकर नहीं चले, जन-जन के नेता थे,
करोड़ों लोगों के ह्रदय पर राज करते थे, गांधीजी
साम्राज्यवाद, जातिय सांप्रदायिक समस्या, भाषा नीति और सामाजिक सुधार पर अपने व्यक्तिगत और राष्ट्रीय सरोकार जो की
गांधी को महान विभूति बनाते है।
वहीं
शास्त्री जी ने भी स्वतंत्रता के पहले गांधीजी के साथ नमक कानून को तोड़ते हुए
दांडी यात्रा की। इस प्रतीकात्मक सन्देश ने पूरे देश में एक तरह की क्रांति ला दी।
लाल बहादुर शास्त्री विह्वल ऊर्जा के साथ स्वतंत्रता के इस संघर्ष में शामिल हो
गए। उन्होंने कई विद्रोही अभियानों का नेतृत्व किया एवं कुल सात वर्षों तक ब्रिटिश
जेलों में रहे। आजादी के इस संघर्ष ने उन्हें पूर्णतः परिपक्व बना दिया।
स्वतंत्र
भारत में शास्त्री जी ने केंद्रीय मंत्रिमंडल के कई विभागों का प्रभार संभाला – रेल मंत्री; परिवहन एवं संचार मंत्री; वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री;
गृह मंत्री एवं नेहरू जी की बीमारी के दौरान बिना विभाग के मंत्री
रहे। एक रेल दुर्घटना, जिसमें कई लोग मारे गए थे, के लिए स्वयं को जिम्मेदार मानते हुए उन्होंने रेल मंत्री के पद से
इस्तीफा दे दिया था। लेकिन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने इस्तीफा स्वीकार नहीं
किया। रेल दुर्घटना पर लंबी बहस का जवाब देते हुए लाल बहादुर शास्त्री ने कहा;
“शायद मेरे लंबाई में छोटे होने एवं नम्र होने के कारण लोगों को
लगता है कि मैं बहुत दृढ नहीं हो पा रहा हूँ। यद्यपि शारीरिक रूप से में मैं मजबूत
नहीं है लेकिन मुझे लगता है कि मैं आंतरिक रूप से इतना कमजोर भी नहीं हूँ।”
सारे
विश्व के लिए समरसता, सद्भाव, अहिंसा और सत्य की बात करने वाले गांधी जी
भारतीय स्वतंत्रता संगाम के वो चमत्कारिक नायक बने जिनके एक आव्हान पर भारत का
समूचा जनमानस एकत्रित और संगठित रूप में ब्रिटिश शासकों के विरुद्ध खड़ा हो गया
था। गांधी जी ने नस्लभेद मिटाने के साथ हिंदु समाज के अविभाज्य अंग को हरिजन नाम
दिया और हिन्दू-मुस्लिम में एकता स्थापित करने के कई प्रयास भी किए। उन्होंने
चंपारण से स्वाधीनता की बिगुल बजाई और खिलाफत में हिंदू-मुस्लिम की एकता की मिसाल
पेश की वह अद्भुत थी।
वहीं तीस
से अधिक वर्षों तक अपनी समर्पित सेवा के दौरान लाल बहादुर शास्त्री अपनी उदात्त
निष्ठा एवं क्षमता के लिए लोगों के बीच प्रसिद्ध हो गए थे। विनम्र, दृढ, सहिष्णु एवं जबर्दस्त आंतरिक शक्ति वाले शास्त्री जी लोगों के बीच ऐसे
व्यक्ति बनकर उभरे जिन्होंने लोगों की भावनाओं को समझा। वे दूरदर्शी थे जो देश को
प्रगति के मार्ग पर लेकर आये। लाल बहादुर शास्त्री महात्मा गांधी के राजनीतिक
शिक्षाओं से अत्यंत प्रभावित थे। अपने गुरु महात्मा गाँधी के ही लहजे में एक बार
उन्होंने कहा था – “मेहनत प्रार्थना करने के समान है।”
उन्होने ही देश को जय जवान-जय किसान का नारा दिया। महात्मा गांधी के
समान विचार रखने वाले लाल बहादुर शास्त्री भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठ पहचान हैं।
2
अक्टूबर 1869 को गांधी जी और 2 अक्टूबर 1904 को लाल बहादुर शास्त्री का जन्म हुआ और
दोनों महामानवों के विचार और वैचारिक दृढ़ता में अद्भूत सामंजस्य था। दोनों ने
भारत को आजादी दिलाने के लिए तन-मन-धन से लोगों को जोड़ा साथ ही स्वावलंबी समाज की
और जन-जन को प्रवृत किया। वहीं नैतिक जीवन जी कर समाज को संदेश दिया जो कि सामान्य
मनुष्य के लिए संभव नहीं होता है। यह वजह रही होगी की उस समय महान वैज्ञानिक
अल्बर्ट आइंस्टीन ने गांधी जी के बारे में बिलकुल सटीक कहा था कि “भविष्य
की पीढ़ियों को इस बात पर विश्वास करने में मुश्किल होगी कि हाड़-मांस से बना ऐसा
कोई व्यक्ति भी कभी धरती पर आया था।“ वही लाल बहादुर
शास्त्री के बारे में कहा जाता है कि वे “छोटे कद के बड़े
व्यक्ति थे”। दोनों महापुरुषों को सादर नमन...।
-संदीप सृजन
संपादक- शाश्वत सृजन
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