पत्रकार की ग़ज़ल

एक पत्रकार की ग़ज़ल
--------------------
जिन्दगी के आस पास देखता हूँ ।
अपनी नजर से कुछ खास देखता हूँ ।

कलम स्याही मे डुबोने से पहले ।
खुद का आत्मविश्वास देखता हूँ ।

तमस से लड़ने की आदत क्या हुई।
हर वक्त भीतर  उजास देखता हूँ ।

सियासत से दोस्ती करने से पहले ।
अपने वतन का विकास देखता हूँ ।

खबरो का विस्तार अक्सर करता हूँ ।
पर पहले संधि व समास देखता हूँ ।

@संदीप सृजन
संपादक शब्द प्रवाह

बेटी के सम्मान मे दोहे

दोहे
बेटी के हाथो सभी...
----—----------------------------
घर आँगन की लाडली,खुशियाँ दे भरपूर।
बेटी के हाथों सभी, हो मंगल दस्तूर ।

बेटी ही बनती सदा,नव जीवन आधार ।
दो-दो घर के सपन को,करती है साकार।

आँगन की किलकारियॉ, पायल की झंकार ।
भूल सके ना हम कभी, बेटी का उपकार।

बेटी मे संवेदना, और बसा है भाव।
आँगन की तुलसी जिसे,पूजे सारा गाँव ।

बेटा है घर का शिखर,बेटी है बुनियाद ।
जीवन भर करती रहे,नैन मूंद संवाद ।

भाग्यहीन समझो उसे,या कमजोर नसीब।
आँगन मे बेटी नही,वो घर बडा गरीब।

हाथ जोड़ कर मानती,जीवन भर उपकार ।
उस बेटी को किजिए,दिल से ज्यादा प्यार ।

खुशी - खुशी स्वीकार कर,दो- दो कुल की रात।
आँसु और मुस्कान को ,बेटी दे संगीत।

@संदीप सृजन
संपादक -शब्द प्रवाह
ए-99 वी.डी.मार्केट,
उज्जैन(म.प्र.)456006
मो.09926061800

रोटी महंगी औ जान सस्ती देखये (ग़ज़ल)

एक ग़ज़ल
---------------------------
सिंहासनों की सरपरस्ती देखिये
नुमाईदों की जबरदस्ती देखिये

लोक शासन ने दिया है यह उपहार
रोटी महंगी औ जान सस्ती देखिये

चुनाव हो जाने के बाद दोस्तों
नेताजी को तरसती बस्ती देखिये

बाढ़ आयेगी ओ चली जायेगी
बाद रोती-बिलखती बस्ती देखिये

जुए मे लगते सट्टे के दाव है
खेलो मे हो रही मस्ती देखिये

आँसुओँ को भी मुस्कान में बदल दें
मेरे मालिक की वो हस्ती देखिये
@संदीप सृजन
संपादक -शब्द प्रवाह

रोटी-भूख-निवाला देखा (ग़ज़ल)

एक ग़ज़ल
---------------------------
बरसों बाद उजाला देखा
रोटी-भूख-निवाला देखा

कैकई से जब मिली मंथरा
राम का देश निकाला देखा

मिलेगी उनको मंजिल कैसी
जिसने पाँव का छाला देखा

झूठ शहर में चल निकला है
सच के मुँह पर ताला देखा

सत्ता का जब हुआ स्वयंवर
तन गोरा मन काला देखा
@संदीप सृजन

दोहा

हमने जब देखा कभी, कुछ सुन्दर सा ख्वाब|
राज महल हिलने लगे,दहल उठे महराब ||
@संदीप सृजन

सुंदर ख्वाब =भ्रष्टाचार मुक्त भारत
राज महल = राज नेता
महराब = अफसर

जीवन की सच्चाई लिख दी

एक ग़ज़ल
**************
मैने पाई -पाई लिख दी
जीवन की सच्चाई लिख दी

तीखी धूप पडी आँगन मे
बरगद की परछाईं लिख दी

मीठी बाते जिनको भाती
उनको खूब मिठाई लिख दी

तारो की बारात के संग
सूरज की शहनाई लिख दी

बचपन की चंचलता छोड़ी
कुछ ऐसी गहराई लिख दी
@संदीप सृजन





दोहा

दुख के सूरज के यहाँ, टिक ना पाए पॉव|
बूढे बरगद की रही,घर आंगन मे छाँव||
@संदीप सृजन

दोहा

सूरज ने सिर पर रखा,अंगारो का ताज|
तब जाकर वह कर रहा,सारे जग पर राज||
@संदीप सृजन