राजनेता से पहले कवि और पत्रकार थे अटल जी
-संदीप सृजन
सात दशक की भारतीय राजनीति में कुछ ही ऐसे
प्रखर वक्ता और राष्ट्रहित चिंतक हुए है जिनका मुकाबला आने वाले समय में शायद ही
कोई कर पाएगा। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी एक ऐसे ही व्यक्तित्व
थे,जिनका कोई पर्याय नहीं हो सकता ।देश-विदेश में अटल जी की भाषण शैली इतनी
प्रसिद्ध रही है कि उनका आज भी भारतीय राजनीति में डंका बजता है।
वाजपेयी जी जब जनसभा या संसद में बोलने खड़े होते तो उनके समर्थक और विरोधी दोनों
ही उन्हें सुनना पसंद करते थे। अटल जी को न केवल एक कुशल राजनीतिज्ञ और प्रशासक के
रूप में जाना जाता है,
बल्कि वाजपेयी जी की
पहचान एक प्रख्यात कवि,
पत्रकार और लेखक की भी
रही है।
1942 में छात्र राजनीति से अटलजी के राजनैतिक
सफर की शुरुआत हो गई थी, कम उम्र में उनके छात्र संघ चुनाओं में उच्चपद पर चुना
जाना उनके नेतृत्व कार्य गुण का परिचायक था, उस
समय यह बातें होती थी कि यह युवक देश की राजनीति में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा
करेगा। उस समय देश पराधीनता था, स्वाधीनता आंदोलन जोर पकड़ता जा रहा था, राष्ट्रीय
आंदोलन में पहले से स्थापित राष्ट्रीय नेता पुरजोर तरीके से शिरकत कर रहे थे। उस
दौरान 1942 में जब अटल जी की उम्र 18 वर्ष से भी कम थी और वह इंटर
के छात्र थे तब महात्मा गांधी के भारत छोड़ो आंदोलन में उन्होंने भाग लिया था और 23 दिन की जेल यात्रा भी करी
थी।
अपनी पढ़ाई के दौरान एम.ए. की उपाधि
प्रथम श्रेणी में प्राप्त करने के बाद अटल जी और उनके पिता कृष्ण बिहारी वाजपेयी
ने एक साथ एलएलबी की डिग्री प्राप्त की। उनका मन आगे पीएचडी करने का था लेकिन संघ
के कार्यों से जुड़े होने के कारण उनकी जिम्मेदारियां बढ़ती जा रही थी और अटलजी को
पत्रकारिता का जबरदस्त शौक था, पत्रकारिता के शौक को देखते हुए संघ के मासिक पत्र
राष्ट्रधर्म मैं उनको सह संपादक पद की जवाबदारी सौंपी गई क्योंकि लेखन अटल जी को
प्रिय था इसलिए अटल जी ने सहर्ष रूप से यह जिम्मेदारी स्वीकार की और राष्ट्र धर्म
का कार्य संभाला। पंडित दीनदयाल उपाध्याय राष्ट्रधर्म का संपादकीय लिखते थे, अन्य
महत्वपूर्ण कार्यों को देखने का काम अटल जी के सुपुर्द थे। राष्ट्रधर्म का कार्य
इतनी कुशलता से अटल जी ने संभाला कि उसकी प्रसार संख्या बढ़ती ही गई, अटल जी के
बढ़िया लेखों ने राष्ट्र धर्म का प्रसार बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया फिर वह
संपादकीय भी लिखने लगे और इस बात की आवश्यकता महसूस की गई कि अब राष्ट्रधर्म का
स्वयं का प्रिंटिंग प्रेस हो।राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने प्रेस का प्रबंध किया और
इसका नाम भारत प्रेस रखा गया कुछ समय बाद भारत प्रेस से मुद्रित होने वाला दूसरा
समाचार पत्र पाञ्चजन्य भी प्रकाशित होने लगा इस समाचार पत्र का संपादन कार्य
पूर्णता अटल जी के हाथों में आ गया और यहीं से सक्रिय पत्रकारिता के रूप में अटलजी
सामने आए पाञ्चजन्य के संपादन का कार्य पूरी कुशलता के साथ अटलजी कर रहे थे कुछ ही
समय बीता था कि 15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र हो गया अटल जी ने भी देश की आजादी के लिए जेल
यात्राएं की थी इस समय जब देश पूरा आजादी का हर्ष मना रहा था तब उनकी प्रसन्नता की
भी कोई सीमा नहीं थी।
अब अटल जी की लेखनी की धार
और अधिक पानी हो गई थी कुछ महीनों में ही वह निर्भीकता के साथ संपादन का दायित्व
निभाए रहे थे इसी दौरान राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या हो गई और नाथूराम
गोडसे का संबंध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से होना पाया गया इसलिए तात्कालिक सरकार
ने संघ की भारत प्रेस को बंद करवा दिया। उस समय तक अटलजी पूरी तरह से पत्रकारिता
में रच-बस गए थे । पत्रकारिता को अपना व्यावसायिक जीवन बना लिया था अतः उन्होंने
इलाहाबाद जाकर क्राइसिस टाइम्स नामक अंग्रेजी अखबार के लिए अपनी सेवाएं देना आरंभ
की कुछ समय बाद वाराणसी के चेतना साप्ताहिक का कार्यभार भी अटल जी ने संभाला ।
1950
में
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रतिबंध हटने के बाद लखनऊ से प्रकाशित होने वाले
दैनिक स्वदेश का पुनः प्रकाशन आरंभ हुआ, अटल जी ने लखनऊ आकर उसके संपादन का भार
संभाला लेकिन आर्थिक परेशानियों के चलते दैनिक स्वदेश कुछ समय बाद बंद हो गया । जिसका
अंतिम संपादकीय “आत्मविदा” अटल जी ने लिखा, यह संपादकीय बहुत चर्चित
हुआ था। दैनिक स्वदेश से अवकाश ग्रहण कर अटल जी ने दिल्ली की राह ली और वहां से
निकलने वाले वीर अर्जुन में अपनी सेवाएं दी, वीर अर्जुन का प्रकाशन दैनिक भी था और
साप्ताहिक भी उन दिनों का वीर अर्जुन हिंदी समाचार पत्रों में अग्रणीय स्थान रखता
था, वीर अर्जुन का संपादन करते हुए उन्होंने काफी प्रतिष्ठा और सम्मान हासिल किया,
वीर अर्जुन का संपादन अटल जी के पत्रकार जगत का अंतिम कार्य था, वह कवि और पत्रकार
के रूप में काफी प्रख्यात हो चुके थे।
अटलजी संघ से जुड़े हुए थे और
इसी दौरान संघ के राजनीतिक दल जनसंघ का उदय हुआ। डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के निजी
सचिव के रूप में कार्य देखने लगे। 1952 में दीपक चुनाव चिन्ह के साथ जनसंघ चुनाव
के मैदान में उतरी लेकिन सफलता नहीं मिली । 1953 मे डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी का
निधन हो गया ।अटलजी दिल्ली में जनसंघ कार्यालय में अपनी सक्रियता के चलते खुद को
स्थापित कर चुके थे । 1957 के दूसरे लोकसभा चुनाव में अटलजी ने तीन जगह से चुनाव
लड़ा और बलरामपुर सीट से विजय होकर पहली बार लोक सभा पहुचे । और यहीं से राष्ट्रीय
राजनीति का अभिन्न अंग बन गये ।
ऐसा कहा जाता है कि अटल जी की भाषण शैली से
पंडित नेहरू इतने प्रभावित हुए थे कि उन्होंने कहा था कि ये नवयुवक कभी ना कभी देश
का प्रधानमंत्री ज़रूर बनेगा। बाद में नेहरू की ये भविष्यवाणी सही साबित हुई। साल 1977 में केंद्र में जनता दल की सरकार बनी तो
अटल बिहारी वाजपेयी को विदेश मंत्री बनाया गया। तब उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ
में भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए हिंदी में भाषण दिया था। ये पहला मौका था जब
संयुक्त राष्ट्र संघ में किसी नेता ने हिंदी में भाषण दिया था। पहली बार इतने बड़े
मंच से विश्व का हिंदी से परिचय हुआ था। 1996 में जब उनकी सरकार सिर्फ एक मत से गिर गई तो
वाजपेयी ने संसद में एक जोरदार भाषण दिया था। वक्त प्रधानमंत्री के तौर पर यह
वाजेपयी का अंतिम भाषण था। इस भाषण के बाद वह राष्ट्रपति को अपने इस्तीफा सौंपने
चले गए थे। इस भाषण की आज भी मिसाल दी जाती है।
अपनी लेखनी के प्रति अटलजी सदैव गंभीर
रहे,उन्होने अपने पत्रकार और कवि को कभी खत्म नहीं होने दिया ।जब तक वे होशोहवास
में रहे कविता लिखते रहे । 25 दिसम्बर 1924 को जन्में अटलजी 16 अगस्त 2018 को अपनी
देह यात्रा पुरी कर गये लेकिन अपने चाहने वालों और राजनैतिक विरोधियों के दिलों
में सदा बने रहेंगे । उन्हीं की कविता की पंक्तियों के साथ सादर नमन...
क्या खोया,
क्या पाया जग में
मिलते और बिछुड़ते मग में
मुझे किसी से नहीं शिकायत
यद्यपि छला
गया पग-पग में
एक दृष्टि बीती पर डालें,
यादों की पोटली टटोलें!
पृथ्वी लाखों वर्ष पुरानी
जीवन एक अनन्त कहानी
पर तन की अपनी सीमाएँ
यद्यपि सौ
शरदों की वाणी
इतना काफ़ी है अंतिम
दस्तक पर, खुद दरवाज़ा खोलें!
जन्म-मरण अविरत फेरा
जीवन बंजारों का डेरा
आज यहाँ, कल कहाँ कूच है
कौन जानता
किधर सवेरा
अंधियारा आकाश असीमित,
क्या पाया जग में
मिलते और बिछुड़ते मग में
मुझे किसी से नहीं शिकायत
यद्यपि छला
गया पग-पग में
एक दृष्टि बीती पर डालें,
यादों की पोटली टटोलें!
पृथ्वी लाखों वर्ष पुरानी
जीवन एक अनन्त कहानी
पर तन की अपनी सीमाएँ
यद्यपि सौ
शरदों की वाणी
इतना काफ़ी है अंतिम
दस्तक पर, खुद दरवाज़ा खोलें!
जन्म-मरण अविरत फेरा
जीवन बंजारों का डेरा
आज यहाँ, कल कहाँ कूच है
कौन जानता
किधर सवेरा
अंधियारा आकाश असीमित,
प्राणों के पंखों को तौलें!
अपने ही मन से कुछ बोलें!
अपने ही मन से कुछ बोलें!
-संदीप सृजन
संपादक-शाश्वत सृजन मासिक
ए-99 वी.डी. मार्केट.उज्जैन 456006
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