सावन-भादौ के सोमवार को महाकाल महाराज अपनी प्रजा को दर्शन देने निकलते हैं


उज्जैन में निकलने वाली महाकालेश्वर की सवारी
भगवान महाकाल राजा के रूप में प्रजा का हाल-चाल जानने निकलते हैं
सावन-भादौ के सोमवार को महाकाल महाराज अपनी प्रजा को दर्शन देने निकलते हैं।
-संदीप सृजन

शिव को यूं तो घट-घट का वासी कहा गया है, संसार के हर प्राणी में शिव तत्व मौजूद हैं। हर जगह शिव का वास हैं। लेकिन शिव को जो जगह भू-लोक पर सर्वाधिक प्रिय है उनमें से एक है अवंतिकापुरी याने आज का उज्जैन शहर। जहॉ महाकाल स्वरूप में शिव विराजमान है। शिव के प्रमुख बारह स्थानों में महाकाल ज्योतिर्लिंग उज्जैन का महत्व अधिक है । इस मृत्यू लोक में महाकाल विशेष रूप से पूज्य है ,इसीलिए कहा जाता है-
आकाशे तारकं लिंगम्, पाताले हाटकेश्वरम्।
मृत्युलोके महाकालं, त्रयं लिंगम् नमोस्तुते।।
शास्त्रों में सावन माह को शिव का प्रिय मास बताया जाता है, और सोमवार को अति प्रिय वार। सावन माह में सोमवार के साथ यदी कुछ प्रसिद्ध है तो वह है उज्जैन में निकलने वाली महाकालेश्वर की सवारी।
महाकाल उज्जैन नगरी के राजाधिराज महाराज माने गए हैं। सावन-भादौ के सोमवार को महाकाल महाराज अपनी प्रजा को दर्शन देने निकलते हैं। ऐसा लोक व्यवहार में माना जाता हैं और पलक पावड़े बिछाकर जनता भी अपने महाराज का सत्कार करती हैं । सवारी की इस परम्परा की शुरुआत सिंधिया वंशजों द्वारा की गई थी । पहले श्रावण मास के आरंभ में सवारी नहीं निकलती थी, सिर्फ सिंधिया वंशजों के सौजन्य से महाराष्ट्रीयन पंचाग के अनुसार ही सवारी निकलती थी। सावन की अमावस्या के बाद भादौ की अमावस्या के बीच आने वाले सोमवार को ही सवारी निकलती थी। उज्जयिनी के प्रकांड ज्योतिषाचार्य पद्मभूषण स्व. पं. सूर्यनारायण व्यास और तात्कालिक कलेक्टर महेश निलकंठ बुच के आपसी विमर्श और पुजारियों की सहमति से तय हुआ कि क्यों न इस बार श्रावण के आरंभ से ही सवारी निकाली जाए और कलेक्टर बुच ने समस्त जिम्मेदारी सहर्ष उठाई । सवारी निकाली गई और उस समय उस प्रथम सवारी का पूजन सम्मान करने वालों में तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद नारायण सिंह, राजमाता सिेंधिया व शहर के गणमान्य नागरिक प्रमु्ख थे। सभी पैदल सवारी में शामिल हुए और शहर की जनता ने रोमांचित होकर घर-घर से पुष्प वर्षा की। इस तरह एक खूबसूरत परंपरा का आगाज हुआ।
मंदिर की परंपरा अनुसार प्रत्येक सावन सोमवार के दिन महाकालेश्वर भगवान की शाम चार बजे मंदिर से सवारी शुरू होती हैं। सबसे पहले भगवान महाकाल के राजाधिराज रूप (मुखौटे) को उनके विशेष कक्ष से निकल कर भगवान महाकाल के सामने रखकर उन्हें आमंत्रित कर उनका विधिविधान से आह्वान किया जाता हैं। मंत्रों से आह्वान के बाद ये माना जाता है कि बाबा महाकाल अपने तेज के साथ मुखौटे में समा गए हैं, इसके बाद ही सवारी निकाली जाती है। जब तक सवारी लौटकर नहीं आती तब तक बाबा महाकाल की आरती नहीं की जाती। तत्पश्चात् जिले के प्रशासनिक अधिकारी और शासन के प्रतिनिधि द्वारा  भगवान महाकालेश्वर को विशेष श्लोक, मंत्र और आरती के साथ अनुग्रह किया जाता है कि वे अपने नगर के भ्रमण के लिए चलने को तैयार हों।
भगवान महाकाल राजा के रूप में प्रजा का हाल-चाल जानने निकलते हैं तब उन्हें उपवास होता है। अत: वे फलाहार ग्रहण करते हैं। विशेष कर्पूर आरती और राजाधिराज के जय-जयकारों के बीच उन्हें चांदी की नक्काशीदार खूबसूरत पालकी में प्रतिष्ठित किया जाता हैं। यह पालकी इतने सुंदर फूलों से सज्जित होती हैं कि इसकी छटा देखते ही बनती हैं। भगवान के पालकी में सवार होने और पालकी के आगे बढ़ने की बकायदा मुनादी होती हैं। तोपों से उनकी पालकी के उठने और आगे बढ़ने का संदेश मिलता हैं। पालकी उठाने वाले कहारों का भी चंदन तिलक से सम्मान किया जाता हैं। पालकी के आगे बंदुकची धमाके करते हुए चलते हैं जिससे पता चले की सवारी आ रही हैं। राजा महाकाल की जय के नारों से मंदिर गूंज उठता हैं। भगवान की सवारी मंदिर से बाहर आने के बाद गार्ड ऑफ ऑनर दिया जाता है और सवारी रवाना होने के पूर्व चौबदार अपना दायित्व का निर्वाह करते हैं और पालकी के साथ अंगरक्षक भी चलते हैं। सवारी हाथी, घोड़ों, पुलिस बेंड से सुसज्जित रहती हैं।
श्रावण और भादौ मास की इस विलक्षण सवारी में देश-विदेश से नागरिक शामिल होते हैं। मान्यता है कि उज्जैन में प्रतिवर्ष निकलने वाली इस सवारी में राजा महाकाल, प्रजा की दुख-तकलीफ को सुनकर उन्हें दूर करने का आशीर्वाद देते हैं।
विभिन्न मार्गों से होते हुए सवारी मोक्षदायिनी शिप्रा के रामघाट पहुंचती है। यहां पुजारी शिप्रा जल से भगवान का अभिषेक कर पूजा अर्चना किया जाता है। पूजन पश्चात सवारी पारम्परिक मार्गों से होते हुए शाम करीब सात बजे मंदिर पहुंचती है। इसके बाद संध्या आरती होती है । जब शहर की परिक्रमा हर्षोल्लास से संपन्न हो जाती है और मंदिर में भगवान राजा प्रवेश करते हैं तो उनका फिर उसी तरह पुजारी गण फिर से मंत्रों से प्रार्थना कर बाबा से शिवलिंग में समाहित होने की याचना करते हैं। इसके बाद मुखौटा वापस मंदिर परिसर में रख दिया जाता है। कहा जाता है सफलतापूर्वक यह सवारी संपन्न हुई है अत: हे राजाधिराज आपके प्रति हम विनम्र आभार प्रकट करते हैं।
हर सौमवार को अलग अलग रूप में भगवान महाकाल नगर भ्रमण करते है ।
मनमहेश : महाकाल सवारी में पालकी में भगवान मनमहेश को विराजित किया जाता है। पहली सवारी में भगवान सिर्फ मनमहेश रूप में ही दर्शन देते हैं।
चंद्रमौलेश्वर : दूसरी सवारी में पालकी पर विराजकर भगवान चंद्रमौलेश्वर भक्तों को दर्शन देने के लिए निकलते हैं। मनमहेश व चंद्रमौलेश्वर का मुखौटा एक सा ही नजर आता है।
उमा-महेश : इस मुखौटे में महाकाल संग माता पार्वती भी नजर आती हैं। यह मुखौटा नंदी पर निकलता है।
शिव तांडव : भगवान इस मुखौटे में भक्तों को तांडव करते हुए नजर आते हैं। यह गरुढ़ पर विराजित है।
जटाशंकर : भगवान का यह मुखौटा सवारी में बैलजोड़ी पर निकलता है। इसमें भगवान की जटा से गंगा प्रवाहित होती नजर आती है।
होल्कर : भगवान इस रूप में होल्कर पगड़ी धारण किए हुए हैं। होल्कर राजवंश की ओर से यह सवारी में शामिल होता हैं।
सप्तधान : सप्तधान रूप में भगवान नरमुंड की माला धारण किए हुए हैं। मुखौटे पर सप्तधान अर्पित होते हैं।

आखरी सवारी को को शाही सवारी कहा जाता है यह भादौ की अमावस्या के पहले आने वाले सोमवार को शाही सवारी निकाली जाती है । इस शाही सवारी में महाकाल सातों स्वरूप में एक साथ निकलते हैं, नगर के लगभग सारे बेंड बाजे वाले, किर्तन भजन मंडलिया, विभिन्न अखाड़े, बहुरुपिए शामिल होते है और शाही सवारी की शोभा बढ़ाते हुए भगवान महाकाल के प्रति अपनी आस्था अभिव्यक्त करते हैं। शाही सवारी का मार्ग अन्य सवारियों से ज्यादा लम्बा होता है। कुछ नये मार्गों से यह सवारी निकलती हैं। इस सवारी को देखने देश भर से श्रद्धालु उज्जैन आते हैं। पुरा शहर दुल्हन की तरह सजाया जाता हैं, तोरण बांधे जाते हैं, जगह जगह मंच बनाकर अपने महाराज का स्वागत किया जाता हैं ।शाही सवारी वाले दिन उज्जैन की छटा अद्भूत होती हैं । हर कोई महाकाल महाराज के स्वागत की तैयारी में लगा होता हैं। शाही सवारी का पूजन-स्वागत-अभिनंदन शहर के बीचों बीच स्थित गोपाल मंदिर में सिंधिया परिवार की ओर से किया गया। यह परंपरा सिंधिया परिवार की तरफ से आज भी जारी है। पहले तात्कालिक महाराज स्वयं शामिल होते थे। बाद में राजमाता नियमित रूप से आती रहीं फिर माधवराव सिंधिया और अब ज्योतिरादित्य सिंधिया के द्वारा परम्परा का पालन किया जा रहा है।
- संदीप सृजन
संपादक-शाश्वत सृजन
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तुलसीदास के शब्दों में गुरु महिमा


तुलसीदास के शब्दों में गुरु महिमा
गुरू बिन भवनिधि तरहिं न कोई,जौं बिरंचि संकर सम होई।


भारतीय वांग्मय में गुरु को इस भौतिक संसार और परमात्म तत्व के बीच का सेतु कहा गया है। सनातन अवघारणा के अनुसार इस संसार में मनुष्य को जन्म भले ही माता पिता देते है लेकिन मनुष्य जीवन का सही अर्थ गुरु कृपा से ही प्राप्त होता है । गुरु जगत व्यवहार के साथ-साथ भव तारक पथ प्रदर्शक होते है । जिस प्रकार माता पिता शरीर का सृजन करते है उसी तरह गुरु अपने शिष्य का सृजन करते है। शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है अंधकार और रु का का अर्थ उसका निरोधक । याने जो जीवन से अंधकार को दूर करे उसे गुरु कहा गया है।
आषाढ़ की पूर्णिमा को हमारे शास्त्रों में गुरुपूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। गुरु के प्रति आदर और सम्मान व्यक्त करने के वैदिक शास्त्रों में कई प्रसंग बताए गये हैं। उसी वैदिक परम्परा के महाकाव्य रामचरित मानस में गौस्वामी तुलसीदास जी ने कई अवसरों पर गुरु महिमा का बखान किया है।
मानस के प्रथम सौपान बाल काण्ड में वे एक सौरठा में लिखते है-
बंदउँ गुरु पद कंज, कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज, जासु बचन रबि कर निकर।
अर्थात - मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल की वंदना करता हूँजो कृपा सागर है और नर रूप में श्री हरि याने भगवान हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं।
रामचरित मानस की पहली चौपाई में गुरु महिमा बताते हुए तुलसी दास जी कहते है-
बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।
अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू।
अर्थात- मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँजो सुरुचि (सुंदर स्वाद)सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण हैजो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है।
इसी श्रंखला में वे आगे लिखते है-
श्री गुर पद नख मनि गन जोती,सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती।
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू।
अर्थात- श्री गुरु महाराज के चरण-नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान हैजिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने वाला हैवह जिसके हृदय में आ जाता हैउसके बड़े भाग्य हैं।
बाल काण्ड में ही गोस्वामी जी राम की महिमा लिखने से पहले लिखते है-
गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥
अर्थात- गुरु महाराज के चरणों की रज कोमल और सुंदर नयनामृत अंजन हैजो नेत्रों के दोषों का नाश करने वाला है।
गुरु के सम्मुख कोई भेद छुपाना नहीं चाहिए इस बात को तुलसीदास जी मानस के बाल काण्ड में ही दोहे के माध्यम से कहते है-
संत कहहिं असि नीति प्रभु, श्रुति पुरान मुनि गाव।
होइ न बिमल बिबेक उर, गुर सन किएँ दुराव।
अर्थात- संत लोग ऐसी नीति कहते हैं और वेदपुराण तथा मुनिजन भी यही बतलाते हैं कि गुरु के साथ छिपाव करने से हृदय में निर्मल ज्ञान नहीं होता।
बाल काण्ड में ही शिव पार्वती संवाद के माध्यम से गुरु के वचनों की शक्ति बताते हुए वे कहते है-
गुरके बचन प्रतीति  जेहि,सपनेहुँ सुगम  सुख सिधि तेही।
अर्थात-जिसको गुरु के वचनों में विश्वास नहीं होता है उसको सुख और सिद्धि स्वप्न में भी प्राप्त नहीं होती है।
अयोध्या कण्ड के प्रारम्भ में गुरु वंदना करते हुए हुए तुलसीदास जी कहते है-
जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं,ते जनु सकल बिभव बस करहीं।
मोहि सम यह अनुभयउ न दूजें,सबु पायउँ रज पावनि पूजें।
अर्थात- जो लोग गुरु के चरणों की रज को मस्तक पर धारण करते हैं, वे मानो समस्त ऐश्वर्य को अपने वश में कर लेते हैं।इसका अनुभव मेरे समान दूसरे किसी ने नहीं किया।आपकी पवित्र चरण-रज की पूजा करके मैंने सबकुछ पा लिया।
अयोध्या काण्ड में ही राम और सीता के संवाद के माध्यम से गौस्वामी जी एक दोहे में कहते है-
सहज सुहृद गुर स्वामि सिख,जो न करइ सिर मानि ।
सो पछिताइ अघाइ उर.अवसि होइ हित हानि ।
अर्थात- स्वाभाविक ही हित चाहने वाले गुरु और स्वामी की सीख को जो सिर चढ़ाकर नहीं मानता वह हृदय में खूब पछताता है और उसके अहित की अवश्य होता है ।
उत्तर काण्ड में काकभुशुण्डिजी के माध्यम से एक चौपाई में कहते है-
गुरू बिन भवनिधि तरहिं न कोई। जौं बिरंचि संकर सम होई।।
भले ही कोई भगवान शंकर या ब्रह्मा जी के समान ही क्यों न हो किन्तु गुरू के बिना भवसागर नहीं तर सकता।
और भी कईं प्रसंगों के माध्यम से तुलसीदासजी ने गुरु महिमा का वर्णन अपनी रचनाओं में किया हैं। गुरु की महिमा को स्वीकार करने वालों के लिए शब्दों की नहीं भाव की प्रधानता होती है। गुरु के प्रति समर्पण की जरुरत होती है। गुरु पूर्णिमा एक अवसर होता है जब हम गुरु के प्रति सम्मान सत्कार और अपनी तमाम भावनाएँ उन्हें समर्पित करते हैं।

-संदीप सृजन
संपादक - शाश्वत सृजन
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