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दबंगता से लिखे व्यंग्यों का संग्रह -मिर्ची लगी तो मैं क्या करूँ?

 


डॉ. महेंद्र अग्रवाल एक ऐसा नाम जो गीत, ग़ज़ल के तो उस्ताद के रूप में तो जाना ही जाता है। व्यंग्य के अखाड़े में भी वे उस्ताद से कम नहीं है। वे दबंगता के साथ खुला लिखते है, कटाक्ष करते है, तभी तो उनने अपने हाल ही में प्रकाशित व्यंग्य संग्रह का नाम दिया ‘मिर्ची लगी तो मैं क्या करूँ’ है।

व्यंग्य की भाषा व्यंजना की होती है। और अपने मारक प्रयोग से सामने वाले को घायल जरुर करती है। व्यंग्य जिस पर केन्द्रीत है वो बहुत जल्दी व्यंग्य को मार को बहुत आसानी से समझ लेता है। और चोर की दाढ़ी में तिनका वाले हालात में रहता है। मिर्ची लगी तो मैं क्या करूँ में शामिल 27 व्यंग्य-रचनाओं में व्यंग्य का तीखापन पता नहीं किन-किन को लगेगा और कौन-कौन सी-सी करेगा। पर हॉ जिन पाठकों तीखा पसंद है,चटखारें पसंद है वे जरुर इस कृति का मजा लेंगे। ये भरोसा है क्योंकि व्यंग्यों के विषय और पात्र रोचक ही नहीं प्रभावी भी है।
व्यंग्यकार - डॉ महेन्द्र अग्रवाल

इस कृति के सारे पात्र या विषय कोरी कल्पना नहीं है, यथार्थ है। जो घटनाएँ रोचक किस्सों में लपेट कर डॉ महेन्द्र अग्रवाल जी ने अपने तीखे व्यंग्यों के माध्यम से विषय अनुसार क़लम बद्ध की है वे सब कभी न कभी हमारे देश की राजनीति में, समाज में या साहित्य जगत में घट चुकी है। या आज भी घट रही है।

व्यंग्य के विषय व्यंग्य की भूमिका जैसे होते है, ठीक वैसे जैसे किताब की भूमिका से किताब में क्या है ये पता चल जाता है, उसी तरह डॉ महेन्द्र अग्रवाल जी के व्यंग्य के विषय उन व्यंग्यों को पढ़ने को मजबूर कर देते है। जैसे नेताजी न्यारे, शांतिपूर्ण चुनाव, कवि का उतावलापन, कोप भवन,डोपिंग टेस्ट, मांगलिक लेनदेन, पत्र लेखक व्यंग्यकार, राजनीति, चुनाव और साहित्यकार, साहित्य और स्वाभिमान आदि लगभग सभी विषय पाठकों को चुम्बक की तरह खिंचते है।

विषय के साथ व्यंग्य के नवनीत की बात करे तो कई बेहतरीन जुमले व्यंग्य के स्वाद को बढ़ा कर तीखी मिर्ची का काम कर रहे है।जैसे-

*वे पहुंचे हुए नेता है। मतलब उनकी पहुंच में सब हैं किंतु वे किसी की पहुंच में नहीं है।

* कई बार सम्मान समारोह में शाल की जगह हल्दी की गांठ मिलने भर से वे बल्लियां उछालने लगते है।

*भाई भाई के संबंधो में भी नई तरह की युगीन गर्माहट आ रही है। घर का मुखिया एक को मनाता है तो दूसरा रूठ जाता है। जैसे परिवार का सदस्य न हो, विधायक हो।

*साहित्यकारों का भी डोपिंग टेस्ट होना चाहिए।किसी भी कार्यक्रम से पूर्व अध्यक्ष, मुख्यअतिथि सहित मंचासीन व्यक्तियों, वक्ताओं का यदि डोपिंग टेस्ट हो तो कैसै रहे?

*चुनावों के समय दिन भी बदलते हैं और लोगों के दिल भी; दिल बदलने से दल भी बदलता है और फिर दिन तो बदल ही जाते हैं।

*मजबूरी का नाम महात्मा गांधी है। क्यों? क्योंकि उन्हें न चाहने के बाद भी सार्वजनिक रूप से बार बार याद जो करना पड़ता है। साल में दो बार उनकी समाधी पर जाना पड़ता है।

*सूचना एवं प्रसारण मंत्री ऐसे होते है कि उन्हें खुद के हटाए जाने की सूचना नहीं होती।

*जैसे बच्चे की शादी सभी पोते की कामना से करते हैं और कहते है कि हम तो अपना फर्ज निभा रहे हैं।

*रचनाकार कितना भी प्रयास करे किंतु उसकी कुंठाएं उसकी रचना में कहीं न कहीं सिर उठा लेती है।

*कुत्ता वफादार होता है मगर जरुरी नहीं कि हर बार कुत्ता ही वफादार हो, कभी-कभी राजनीति में वफादार भी कुत्ता निकल जाता है और बनी हुई सरकारें बिगाड़ देता है।

व्यंग्य के घोल में लपेटे और भी कई जुमले है जो सच बयानी करते है। जैसे भजिए को जुबान पर रखे बगैर उसके स्वाद का पता नहीं चलता, उसके तीखेपन का पता नहीं चलता वैसे ही बगैर इस कृति को पढ़े इस कृति के रहस्यमय व्यंग्यों को समझा नहीं जा सकता है।

डॉ महेन्द्र अग्रवाल जी के पहले भी कई व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हो चुके है। उनके लेखन की विशेषता है कि वे लेखन दोहराव से मुक्त है। वे ही सपाट बयानी भरे वाक्य नहीं लिखते है। बड़े वाक्यों में लपेट-लपेट कर बात कहते है। साथ ही मुहावरों और शेरो शायरी के साथ व्यंग्य का जायका पाठकों के लिए तैयार करते है। जो रस भंग नहीं होने देते।

इस बेहतरीन व्यंग्य संग्रह को जे.टी.एम. पब्लिकेशन दिल्ली ने बहुत ही बढ़िया कागज़ पर प्रकाशित किया है। आवरण से अंत सब अच्छा है। एक अच्छा और सच्चा व्यंग्य संग्रह पाठकों को सौपने के लिए डॉ महेन्द्र अग्रवाल जी को बधाई।

कृति -मिर्ची लगी तो मैं क्या करूं (व्यंग्य संग्रह)
लेखक - डॉ. महेंद्र अग्रवाल ,
प्रकाशक -जे. टी. एस. पब्लिकेशंस, विजय पार्क, दिल्ली - 110053
पृष्ठ - 141,
मूल्य - सजिल्द संस्करण 500 रु.

चर्चाकार - संदीप सृजन
sandipsrijan.ujjain@gmail.com 

सजग का माइक्रोस्कोप में है समाज की रिपोर्ट

व्यंग्य लिखा नहीं जाता पैदा हो जाता है। मेरा ऐसा मानना है। क्योंकि संसार में हर पल कुछ न कुछ घटता है। उस घटे हुए में से एक टीस जो निकलती है। वह व्यंग्य है। जो हुआ उसमें ये नहीं होना था। तब व्यंग्य पैदा होता है। "सजग का माइक्रोस्कोप" के नाम से संजय जोशी 'सजग' का पहला व्यंग्य संग्रह आया है। संजय जोशी के नाम के साथ सजग उपनाम उनकी जागृत चेतना का पर्याय है। वे समाज, राजनीति,साहित्य,संस्कृति,धर्म,मिडिया,शिक्षा में जो विसंगतियाँ है,जो विडम्बना है उनको अपने दिमाग के माइक्रोस्कोप से बड़े ध्यान से देखते है और अपनी रिपोर्ट इस संग्रह के रूप में समाज को देते है। उनकी रिपोर्ट आम आदमी को समझ आए और गुदगुदी दे जाए ये उनका प्रयास है।

संजय जोशी सजग और संदीप सृजन

"सजग का माइक्रोस्कोप" में संजय जोशी जी के 59 व्यंग्य है। जो उन्होनें कहीं दूर जाकर या विशेष चिंतन करके नहीं लिखे है। उन्होने मनुष्य समाज में रहते हुए जो देखा है। उसी में से कुछ चुभन को व्यंग्य का स्वरूप दिया है। अपने व्यंग्य में वे तमाम तरह की बातों के बीच जो गहरे कटाक्ष करते है वे सटीक ब्रह्म वाक्य  है ,जैसे-
- सेल्फी आधुनिकता की निशानी और नशा हो गया है।
- कर्म प्रधान को चुगली प्रधान ने हर जगह मात दे रखी है।
- इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप कितने ज्ञानी है। फर्क इससे पड़ता है कि आपमें मूर्खता का प्रतिशत कितना है।
- राजनीति को भी विज्ञान कहा जाता है, पर विज्ञान की तरह इसमें भी थ्योरी और प्रेक्टिकल का अंतर है।
- नेता नमक की भांति राजनीति को कभी स्वादहीन तो कभी स्वादिष्ट बनाता है।
- जब तनाव की हो बहार, मधुमेह का लो उपहार।
- ट्रायल पर ट्रायल चलते रहेंगे और हम सब कभी कायल तो कभी घायल होते रहेंगे, हमारा देश ट्रायल प्रधान देश है।
- ठग और डाकू में एक ही असमानता है, डाकू हथियार का उपयोग करते है और ठग दिमाग का।
- दिल्ली में राजनीति का एक शोरूम है, शोरूम के संचालक का अपने पर ही विश्वास नहीं है।
- नेट पर हर त्यौहार को इतने धूमधाम से मनाया जाता है कि उसकी ख्याति अन्तर्राष्ट्रीय हो जाती है।
ये सारी चुटकियाँ व्यंग्यों में जान डालती नजर आती है, 59 व्यंग्यों में और भी कई चुटकियाँ पाठकों को पढ़ने को मिलेगी। व्यंग्यों में रोचकता है क्योंकि सजग जी के अधिकांश व्यंग्य कथानक शैली में है, संवाद रूप में है। जो की आम बातचीत जैसे लगते है। और उन्हीं के बीच में चुटकियाँ उन्होंने ली है। व्यंग्य में विषय के दोहराव से विचारों का दोहराव भी देखने को मिला है तो कहीं-कहीं पर सपाट बयानी व्यंग्य को लेख में बदल रही है। पर उबाऊ पन नहीं है, यह सुखद है। सभी व्यंग्य दैनिक समाचार पत्रों में कहीं न कहीं प्रकाशित हो चुके है। पढ़ने योग्य है।
"सजग का माइक्रोस्कोप" का प्रकाशन म.प्र. साहित्य अकादमी के सहयोग से हुआ है। प्रकाशन की क्वालिटी बहुत बढ़िया है, इसके लिए उत्कर्ष प्रकाशन भी बधाई का पात्र है। आगे और भी सजगता से सजग जी का नया व्यंग्य संग्रह समाज को मिले यही शुभकामनाएं।

पुस्तक - सजग का माइक्रोस्कोप (व्यंग्य संग्रह)
लेखक- संजय जोशी 'सजग'
पता - 78, गुलमोहर कॉलोनी, रतलाम
प्रकाशक- उत्कर्ष प्रकाशन, दिल्ली
पृष्ठ - 132
मूल्य- 200

चर्चाकार - संदीप सृजन, उज्जैन
मो. - 9406649733

समाज को चिंतन देती कृति- आईने में तैरती सच्चाइयाँ


"अच्छा कवि बहुत ज़िद्दी होता है और कविता लिखते समय अपने विवेक और शक्ति के अलावा किसी और की नहीं मानता है।" साहित्यकार विष्णु खरे की यह बात उज्जैन के गौरव गीतकार हेमंत श्रीमाल जी पर सटीक बैठती है।श्रीमाल जी जब गीत बुनते है तो कागज़ और क़लम का उपयोग नहीं करते बल्कि उस गीत को अपने मस्तिष्क में पूरा तैयार करते है और पूरा होने के बाद कागज़ पर आकार देते है। याने सिर्फ अपने विवेक याने बुद्धि और शक्ति याने स्मरण शक्ति का ही उपयोग कर रचनाकर्म करते है। यही वजह है कि हेमंत जी के गीतों में एक अलग चिंतन है जो समाज को नये विचार दे कर सोचने को मजबूर करता है। उनने हमेशा क्वालिटी पर ध्यान दिया है। उनका स्वर भी सधा हुआ है। जिनने उनको प्रत्यक्ष सुना है। वे जानते है कि कवि सम्मेलनों में उनके गीतों पर जनता ने अक्सर खड़े होकर तालियाँ बजायी है।

गीतकार श्री हेमन्त श्रीमाल

"आईने में तैरती सच्चाइयाँ" शीर्षक से हाल ही में हेमंत श्रीमाल जी का पहला गीत संग्रह म.प्र. साहित्य अकादमी के सहयोग से प्रकाशित हुआ है। जिसमें उनके राष्ट्रीय और सामाजिक चेतना के गीतों का संकलित है। 60 गीतों के इस संकलन में जो गीत है उनमें से अधिकांश गीत वे मंचों पर सुनाते रहते है। और श्रोताओं का जो प्रतिसाद मिलता है वो देखने लायक होता है। श्रीमाल जी के गीतों पर लिखना सूरज को दीया दिखाने जैसा है। फिर भी एक कोशिश उनके इस संग्रह से पाठकों परिचित करवाने के लिए कर रहा हूँ। 

हेमंतजी एक मे गीत में कहते है कि-

शहीदों की शपथ तुझको कलम लिख धार की बातें।

लहू को गर्म रखने हित तनिक तलवार की बातें।

तब वे कलमकारों से आव्हान करते नजर आते है। और कलमकार को अपने नैतिक दायित्व से परिचित करवाते है। 

मजदूर की पीड़ा को स्वर देते हुए वे कहते है कि-

सांसे गिरवी रखकर भी हम आस नहीं कर पाते है।

सपनों की क्या बात करें जब पेट नहीं भर पाते है।

श्रीमाल जी की मंचों की बहुत प्रसिद्ध रचना चंबल की बेटी का बयान मानवता को झकझोर देने वाली रचना है। पढ़ते हुए रोंगटे खड़े करने वाली है। सदी के नाम रचना में जो बदलाव सभ्यता में आए है उनको बहुत दमदारी के साथ वे कहते है- 

दादागिरी का राज है गुण्डों का जोर है

पग-पग पे लूट और लुटेरों का शोर है

कैसा ये लोकतन्त्र है कैसा ये दौर है

इक दूसरे के वास्ते हर दिल में चोर है।

राजनीति और समाजिक विषमता पर उनकी रचना *जलता हुआ सवाल* मंचों की अजेय रचना है। वे लिखते है-

सत्ता में पैठ होते ही मलखान हो गये

पहले ही क्या कमी थी जो बेइमान हो गये

रिश्वत की चलती-फिरती इक दूकान हो गये

कल के भिखारी आज के धनवान हो गये

देश के हालात और तात्कालीन स्थिती पर लिखे गीत में हेमंत जी के ये शब्द कालजयी है-

जब तक कुर्सी ही सब कुछ है, और कुछ भी ईमान नहीं

तब तक मेरे देश तुम्हारा होना है कल्याण नहीं

सरकारी घोटालों पर केन्द्रीत रचना देखो नाटक नंगों का, भोपाल गैस कांड पर लिखी गूंगे का बयान, पंजाब मे हुए दंगों पर धधकते हुए पंजाब के नाम, देश को जब सोना विदेशों में गिरवी रखना पड़ा तब तुच्छ भिखारी बना दिया, दक्षिण भारत में आए तूफान के बाद की लच्चर सरकारी व्यवस्था पर उत्तर दो, था ध्यान कहॉ?, अबला पर हुए अत्याचार पर लिखी फिर एक मंदिर तोड़ दिया, बहु को जिंदा जलाए जाने वाले हादसों पर तेल झमाझम झार दिया, पुतलीबाई के चम्पा से नगरवधु बनने तक की कहानी कहती रचना चम्पा घर से भाग गई, कोरोना महामारी के के दौरान हुए लॉक डाउन की स्थिती पर लिखी रचना लॉक डाउन अप्रैल 2020- पैकेज और प्यार विशेष रचनाओं की श्रेणी में आती है। 

सामाजिकता व दार्शनिकता वाली रचनाओं में गौ हत्या स्वीकार नहीं, कांच का मकान आदमी, हर मुफलिस धनवान हुआ, मौत का अहसास के अलावा भी सारी रचना श्रेष्ठतम है। श्रीमाल जी की ग़ज़लें भी चिंतन से भरपूर है।

पुस्तक आईने में तैरती सच्चाइयाँ बार बार पढ़ी जाने वाली कृति है। कोई भी गीत खुल जाए पूरा पढ़े बगैर मन नहीं मानता । यह कृति काफी देर से उन्होनें समाज के बीच रखी है ।आवरण से अंत तक पुस्तक सुंदर है। इस कृति के लिए श्रद्देय हेमंत श्रीमाल जी को बधाई। और आने वाली कृतियों के लिए शुभकामनाएँ...।

पुस्तक - आईने में तैरती सच्चाइयाँ

गीतकार - हेमन्त श्रीमाल

प्रकाशक- ऋषिमुनि प्रकाशन उज्जैन

पृष्ठ- 104 (सजिल्द)

मूल्य- 450

चर्चाकार- संदीप सृजन, उज्जैन

sandipsrijan999@gmail.com 

गांधी दर्शन से रूबरू करवाती कृति-‘महात्मा गांधीः विचार और नवाचार'

 

*संकलन* महात्मा गांधीः विचार और नवाचार *संपादक* प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा *प्रकाशकविक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन

भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में मोहनदास करमचंद गांधी का प्रवेश एक चमत्कारिक व्यक्तित्व का प्रवेश था। मोहनदास गांधी जो बैरिस्टर से महात्मा तक की उपाधियों से अलंकृत हुए और स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रपिता के रूप में स्वीकार किए गये उनका जीवन दर्शन और आचरण किसी भी महामानव से कम नहीं है। साहित्य और समाज में जितना चिंतन- मनन तुलसीदासजी के साहित्य पर हुआ उतना किसी पर नहीं हुआ। गांधी जी पर भी तुलसीदासजी का गहन प्रभाव रहा। यही वजह रही की वे सदैव राम राज के पक्षधर रहे। पिछले सौ सालों में जितना साहित्य गांधी जी को लेकर लिखा गया, उनके आदर्श जीवन पर जितनी व्याख्याएँ की गई । उतना लेखन शायद ही किसी महापुरुष पर हुआ होगा।

भारत सहित सारे विश्व में गांधीजी के 150 वें जन्म वर्ष में वर्ष पर्यंत कई आयोजन हुए, और कई प्रकाशन समाज में आए। उज्जैन के विक्रम विश्वविद्यालय द्वारा भी इस अवसर को यादगार बनाने की पहल की गई और हिंदी के आचार्य प्रो. शैलेन्द्र कुमार शर्मा के संपादन में एक महत्वपूर्ण कृति 'महात्मा गांधीः विचार और नवाचार' का प्रकाशन किया गया। इस कृति में 21 चिंतकों ने महात्मा गांधी के जीवन के विभिन्न पहलुओं पर अपनी लेखनी चलाई और गांधी जी के जीवन को सरल शब्दों में समाज के सामने रखने का उपक्रम किया है। जो कि सराहनीय है।

गांधी जी अपने समय के तमाम महापुरुषों में बिरले थे क्योंकि उन्होंने सत्य और नैतिक जीवन को सिर्फ जीया ही नहीं लिखने का साहस भी किया। अपने आदर्शो को तो समाज के सामने रखा पर अपने जीवन की बुराइयों को छुपाने की कोशिश भी नहीं की। यह उनकी सत्यनिष्ठा को दर्शाता है।

गांधी जी को वैष्णव संस्कार अपनी माँ से जनम घुट्टी के साथ मिले थे। और वे ही उनके आदर्श रहे इस बात पर प्रकाश डालते हुए विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बालकृष्ण शर्मा ने लिखते है कि गांधी जी के जीवन में नरसी मेहता के भजन वैष्णव जन तो तेने कहिये का बहुत प्रभाव रहा। और इसी भजन की सरल शब्दों में उन्होंने व्याख्या की है। इस भजन को ही गांधीजी ने अपने जीवन में अंगीकार किया। इस भजन में उल्लेखित गुण परोपकार, निंदा न करना, छल कपट रहित जीवन, इंद्रियों पर नियंत्रण, सम दृष्टि रहना, पर स्त्री को माता मानना, असत्य नहीं बोलना, चोरी न करना को जीवन पर्यंत अपनाया और इन्हीं के द्वारा भारत में राम राज की स्थापना की संकल्पना की। ये गुण ही मोहनदास गांधी को महात्मा गांधी बनाते है।

गांधीजी आधुनिक भारत के अकेले नेता थे जो किसी एक वर्ग एक विषय एक लक्ष्य को लेकर नहीं चले, जन-जन के नेता थे, करोड़ों लोगों के ह्रदय पर राज करते थे, इस बात के साथ हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक डॉ मुक्ता ने गांधीजी के मुख्य सरकारों पर केंद्रित लेख में लिखा है कि गांधीजी साम्राज्यवादजातिय सांप्रदायिक समस्या, भाषा नीति और सामाजिक सुधार पर अपने व्यक्तिगत और राष्ट्रीय सरोकार जो की गांधी को महान विभूति बनाते है।

गांधीजी का प्रभाव देश के हर वर्ग पर रहा है, हरेक जाति हरेक समाज के लोग उनसे प्रभावित रहे हैं , तो साहित्य जगत उनसे कैसे अछूता रह सकता था। इसी बात पर संकलन के संपादक और विक्रम विश्वविद्यालय के कुलानुशासक डॉ शैलेन्द्रकुमार शर्मा ने प्रकाश डाला  है। गांधीजी के विभिन्न पहलुओं पर तात्कालिक लेखकों ने अपनी भाषा, अपनी बोली में गांधीजी के जीवनकाल में ही महान रुप में स्वीकार कर लिया था, जिनमें देश के नामचीन लेखक और कवि मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी बालकृष्ण नवीन ,सियारामशरण गुप्त, प्रेमचंद ,निराला, सुभद्रा कुमारी चौहान, दिनकर आदि कोई भी गांधीजी के विचारों से अछूते नहीं रहे हैं। इस विस्तृत लेख में गांधीजी के जीवन और उनकी कार्यशैली तथा जन आस्था को काफी अच्छे ढंग से समझाया गया है जो कि इस कृति का एक महत्वपूर्ण आलेख है।

अन्य आलेखों में डॉ राकेश पांडेय का प्रवासी साहित्य, समाज और गांधी”, डॉ मंजु तिवारी का का लोकगीतों का अकेला लोकोत्तर नायक गांधी”, डॉ पूरन सहगल का अनंत लोक के महानायक गांधी”, डॉ सत्यकेतु सांकृत का महात्मा गांधी और छात्र राजनीति”, डॉ जगदीशचन्द्र शर्मा का महात्मा गांधी का भाषा चिंतन”, डॉ प्रतिष्ठा शर्मा का महात्मा गांधी का हिंदी भाषायी प्रेम इस संकलन के महत्वपूर्ण आलेख है। जो गांधीजी के बारे में नयी पीढ़ी को काफी कुछ समझा सकते है। अन्य लेख और तीन कविताएँ गांधीजी के प्रति आस्था और सम्मान प्रदर्शीत करते हुए कुछ तथ्यात्मक जानकारी देते है और उपयोगी है।

2 अक्टूबर 2020 को गांधी जन्म को 151 साल पूरे हो रहे है। ऐसे महत्वपूर्ण समय पर गांधी दर्शन से पुन: समाज को रूबरू करवाती यह कृति भी महत्वपूर्ण है। बढ़िया आर्टपेपर पर रंगीन चित्रावली के साथ इस संकलन को विक्रम विश्व विद्यालय ने प्रकाशित करवाया है। अंत में गांधी जी के 150 वें जन्म वर्ष पर विश्व विद्यालय के विभिन्न आयोजनों की सचित्र रपट भी दी गई है। यह संकलन भविष्य में बहुउपयोगी होगा ऐसा विश्वास है । महत्वपूर्ण कृति के लिए विक्रम विश्वविद्यालय और संपादक प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा बधाई के पात्र है।

चर्चाकार-संदीप सृजन

संपादक- शाश्वत सृजन

ए-99 वी.डी. मार्केट, उज्जैन 456006

मो. 09406649733

ईमेल- sandipsrijan.ujjain@gmail.com


जनचेतना जगाती कृति- 'नदिया का संगीत'




*कृति- नदिया का संगीत
*लेखक- टीकम चन्दर ढोडरिया
*प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, जयपुर
*पृष्ठ- 80
*मूल्य-100/-
भारतीय छंद शास्त्र में दोहा सर्वाधिक प्रचलित छंद है, भक्ति काल से वर्तमान काल तक दोहा छंद हर कवि को किसी न किसी रूप रास आया है। 13-11 मात्राओं के दो पदों में कवियों ने नवरसों को समाहित किया हैं। किसी भी विषय पर दोहा छंद में आसानी से और त्वरित कोई भी बात कही जा सकती है।हाल ही में कविवर टीकम चंदर ढोडरियाजी का दोहा संग्रह नदिया का संगीत बोधि प्रकाशन जयपुर से प्रकाशित हुआ है। जैसा कि नाम से ही पता चलता है कि यह संग्रह नदी पर केंद्रित है। साथ ही 31 अन्य विषयों पर भी इस कृति में दोहे समाहित है। लेकिन सबसे ज्यादा 116 दोहे केवल नदी पर केंद्रित है। ढोडरिया जी वर्तमान में राजस्थान में निवासरत है, लेकिन कहीं न कहीं उज्जैन शहर जो कि मध्य प्रदेश की धार्मिक राजधानी है उससे उनका बेहद जुड़ाव रहा है यह बात इस संग्रह के प्रारंभ में ही देखने को मिलती है। इस संग्रह की शुरुआत ही वे उज्जयिनी की स्तुति शीर्षक से लिखे सात दोहों से करते हैं, और फिर अपनी कृति के शीर्षक विषय नदी पर आते हैं। इस कृति में नदी को विभिन्न स्वरूपों से अलंकृत किया गया है जिसकी बानगी अलग-अलग दोहों में पढ़ने को मिलती है। वे लिखते हैं-

सुचिता की मूरत नदी, गरिमा की पहचान।
पहने हैं निज- देह पर, लहरों का परिधान।।
नदिया पर बूंदे गिरीं, कल जब मेरे गाँव।
मैं समझा तुम आ गयीं, पायल बांधे पाँव।।
वही आज की नदियों की बदतर स्थिति पर भी लिखने से नहीं चूकते हैं और नदियों के दर्द को इन शब्दों में कहते हैं-
अमरित-सम था जल कभी, आती आज सड़ांध।
क्या से अब क्या कर दिया, है मानव स्वार्थांध।।
कितना मैला हो गया, आज नदी का नीर।
खदबद अब करने लगी, देखो उसकी पीर।।

दोहा छंद की विशेषता है कि इस छंद में बात सहज और सरल शब्दों में कही जा सकती है। जैसा नदी और नारी पर समानता बताते हुए दोहे में ढोडरियाजी ने कही है।
नदिया नारी का रहा, सदा एक व्यवहार।
औरों के सुख हेतु वह, सहती कष्ट अपार।।
नदी की बात जब कभी की जाती है तो जंगल की बात होना स्वाभाविक है, अगले विषय के रूप में ढोडरियाजी वनों की पीड़ा को अपने शब्द देते हैं-
ज्यों-ज्यों सभ्य हुआ सखे, बढ़ी मनुज की भूख।
गुमसुम से रहने लगे, अब जंगल के रूख।।
शहरी सभ्यता के चलते वनों का जो हाल हमने किया है उस पर भी ढोडरियाजी लिखते हैं-
सिसक रही हैं डालियाँ, लगे काँपने पात।
जंगल में जब से घुसी, शहरी आदम जात।।

वर्तमान में सबसे ज्यादा कविता जिस विषय पर लिखी जा रही है, वह विषय है बेटी, बेटी के प्रति वे अपनी अभिव्यक्ति को शब्दों का जामा पहनाते हो कहते हैं-
गणित दुई की एक-सी, पीहर या ससुराल।
बिटिया हल करती रही, दोनों जगह सवाल।।
इस विषय पर 15 दोहे लिखे हैं, जो पाठकों की आँखों में पानी ला देंगे। गांव शीर्षक से कृति में 13 दोहे हैं। जिनमें गांव के शहर बनने की पीड़ा और पुरातन गाँव का स्वरूप है। इन दोहों मे कुछ ऐसे शब्द पढ़ने को मिलते हैं जो आज के शहरी वातावरण में लुप्तप्राय हो चुके हैं। शहरी समाज या कहे कि शहरी सभ्यता का इन शब्दों से दूर-दूर तक का वास्ता नहीं है। ढोडरियाजी पुनः गाँव ले जाना चाहते पाठकों को वे लिखते है-
परहैण्डी, पनघट सजे, जगे अलगनी भाग।
हम से बतिया ने लगे, फिर चूल्हे की आग।।
काँकड़ से पहुंची नजर, ज्यों ही मेरे गाँव।
अगवानी को आ गई, यादे नंगे पाँव।।

नदिया का संगीत में विभिन्न ऋतुओं, त्यौहारों,जीवन के विभिन्न प्रसंगों पर केन्द्रीत दोहे है। साथ ही रति भाव से ओतप्रोत श्रंगार रस में भींगे दोहे भी बहुत शालिन शब्दों में ढोडरियाजी ने कहे है। दोहों की बात हो और कबीर का सुफियाना दार्शनिक अंदाज न दिखे तो बात अधुरी लगती है। जीवन का आधार, होगा वहीं हिसाब,कैसे खोजूँ राम,यक्ष प्रश्न जैसे शीर्षक के साथ दार्शनिक दोहे इस कृति को एक चिंतनशील कृति निरुपित करते है। कृति के सारे दोहे कुछ न कुछ कहते है। हर विषय रूचिकर है। सामयिक है। हॉ कुछ जगह शब्दों का दोहराव जरूर पाठकों पसंद न भी आए पर रचनाकार की प्रतिभा को दर्शाता है। जिनमें शब्द वहीं है पर बात हर जगह अलग है। बोधि प्रकाशन ने कृति को आकर्षक रूप में पाठकों तक पहुंचाया है। यह कृति विषय के अनुसार जनचेतना जगाती कृति है। पाठकों को अपने भूतकाल में झांकने को विवश करती है। हम कैसे थे, कैसे हो गये ये सोचने पर मजबूर करेगी। एक चिंतनशील कृति समाज में लाने के लिए ढोडरियाजी को साधुवाद... बधाई।

 चर्चाकार 
-संदीप सृजन
संपादक- शाश्वत सृजन
ए-99 वी.डी. मार्केट, उज्जैन 456006
मो. 09406649733


सामाजिक मूल्यों को पोषित करती कृति 'सपनों के सच होने तक'




एक कविता जितनी देर में पढ़ी या सुनी जाती है उससे हजार गुना अधिक समय में वह कागज पर अवतरीत होती है, और उससे भी हजार गुना समय उस विषय को चिंतन-मनन करने में कवि लगाता है। कविता का जन्म जब होता है, उससे पहले रचनाकार के विचारों में एक लंबा संघर्ष चल रहा होता है। तभी कविता यथार्थ के धरातल पर टिकती है और पाठक या श्रोता के मानस में अपना स्थान बना पाती है।
*कृति- सपनों के सच होने तक
*लेखक- राजकुमार जैन राजन
*प्रकाशक- अयन प्रकाशन, दिल्ली
*मूल्य-260/-
*समीक्षक-संदीप सृजन
लब्ध प्रतिष्ठित कलमकार और संपादक राजकुमार जैन राजन की कविताओं का दूसरा संग्रह 'सपनों के सच होने तक' शीर्षक से हाल ही में अयन प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। राजन जी नियमित सृजनधर्मी है, विचार और चिंतन और सृजन तीनों प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही वे अपना लिखा सार्वजनिक करते है। ये उनकी विशेषता है। इक्यावन कविताओं के इस संग्रह में सामाजिक सरोकार की रचनाएँ ज्यादा है। जो होना भी चाहिए। जब हम समाज को अपनी रचनाएँ सौप रहे है तो सामाजिक सरोकार प्राथमिक होना चाहिए। कपोल कल्पना मनोरंजन कर सकती है पर समाज को कुछ दे नही सकती। राजन जी हमेशा समाज को देने का भाव रखते है इसीलिए वे समाज के हर पहलू पर स्वयं को केन्द्र में रखकर लिखते है।समाज की दोहरी मानसिकता पर उनकी कविता विष बीज जोरदार प्रहार करती है वे रचना के अंतिम पदों में लिखते है- छोटा हो या बड़ा /अपराध अपराध ही होता है/ जो विष बीज बोता है/ जिसके जहर से / समाज मृत होता है / दोहरा जीवन, दोहरी संस्कृति /जीना छोड़ना होगा /तभी उद्घोष होगा /सत्यम, शिवम, सुंदरम का। राजन जी कविता प्रश्न और उत्तर में जो कहते है वो बहुत गंभीर बात है और ऐसा लगता है वे सीख दे रहे है ,वे कहते है- जिंदगी के थपेड़ों में /गुम हो हो चुके प्रश्नों को /खोज लेने से क्या होगा /जबकि बहरे हुए समय में / उत्तरों का छोर कहां है। वर्तमान में जो मूल्य हृास हो रहे है उन्हें बचाने की एक अच्छी कोशिश है। वे नये युग की वसियत रचना में लिखते है- धोखा यहॉ परम्परा/झूठा गढ़ा इतिहास ही/ अब हमारी संपदा है/ क्या मान्यताओं की / झूठी लक्ष्मण रेखा/ अब टूटेगी?/मुक्त होंगे इनकी कैद से हम/उग रहा है नया सूरज/ नया प्रकाश फैलाने को।


वेदना और संवेदना कविता का आत्मतत्व होता है, एक अच्छी रचना इन तत्वों के बिना बन ही नहीं सकती है। बाढ़, नये युग की वसीयत, मानवता का कत्ल, नई पीढ़ी जैसी रचनाएँ समाज की पीड़ा है। जो हर इंसान कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में भोग रहा है। पीड़ा प्रश्न के डंर, मैं कृष्ण बोल रहा हूँ, मानवता का पुनर्जन्म जैसी कविता पुरातन आख्यानों का नवस्वरूप है जो आज भी समाज में जिंदा है। मेरे भीतर बहती है नदी,लालिमा सूर्योदय की, पुनर्जन्म, समर्थन , चलो, फिर से जी ले जैसी रचनाएँ जीवन को नव चेतना देने में सहायक है।

वही समाज में जब बहुत ज्यादा असामाजिकता आती है और मानव अमानवीय होने लगता है तब राजन जी की कविता के बदले तेवर लिखते है ईश्वर मर गया है, ऐसा एक दीप जलाऊं, प्रश्नों की परछाईयॉ जैसे रचनाएँ जो बोध करवाती है समाज में यह गलत हो रहा है। इस कृति में कईं रचनाओं में एक संदेश दोहराया गया है वह है सत्यम, शिवम,सुंदरम । जो की संसार का सार तत्व है और स्वयं का बोध करवाता है।
राजन जी की यह कृति पूरी तरह से संवेदना से भरी हुई है। हर रचना में उनकी संवेदनशीलता दिखाई दे रही है। राजन जी की यह कृति सामाजिक मूल्यों को पोषित करती है। सपनों के सच होने तक के लिए राजन जी को बधाई ...।
-संदीप सृजन
संपादक- शाश्वत सृजन
ए-99 वी.डी. मार्केट, उज्जैन 456006
मो. 09406649733


व्यंग्य और हास्य का बेहतरीन संतुलनः डेमोक्रेसी स्वाहा




*कृति- डेमोक्रेसी स्वाहा
*लेखक- सौरभ जैन
*प्रकाशक- भावना प्रकाशन, दिल्ली
*पृष्ठ-128
*मूल्य-195/-
बहुत छोटी उम्र में व्यंग्य के क्षेत्र में अपनी पैठ बना चुके सौरभ जैन का हाल ही में पहला व्यंग्य संग्रह डेमोक्रेसी स्वाहा भावना प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। 52 व्यंग्य इस संग्रह में प्रकाशित है, जिनमें से अधिकांश विभिन्न दैनिक अखबारों के व्यंग्य का कालमों में प्रकाशित हुए हैं, कुछ अप्रकाशित भी हैं।
जैसा की नाम से ही लगता है कि राजनीति इस संग्रह का केन्द्र बिन्दू है। राजनैतिक विद्रुपताओं पर सौरभ ने बहुत अच्छे से अपनी कलम चलाई है। व्यंग्य कोई नई विधा नहीं है, लेकिन वर्तमान व्यंग्य विधा के दो प्रमुख स्तंभ शरद जोशी और हरिशंकर परसाई माने जाते हैं, और पत्र-पत्रिकाओं तथा अखबारों में जो व्यंग्य कॉलम प्रकाशित हो रहे हैं वह इन्हीं दो व्यंग्य पुरोधाओं की ही देन है। सौरभ के व्यंग्य उनको शरद जोशी की परम्परा में लाकर खड़ा करते है। क्योंकि उनके व्यंग्य लघु और संतुलित है साथ ही सामयिक भी है। लेखन में व्यंग्य के साथ हास्य का पुट भी है और दोनों का संतुलन भी बेहतरीन है।
सौरभ जब लिखते हैं कि सड़क पर जब किसी गड्ढे का जन्म होता है तो सड़क की बहन और गड्ढे की मौसी बरखा रानी झूम कर उसे पानी से लबालब भर देती है। यह जलकुंड सूक्ष्मजीवों के लिए समुद्र की तरह होता है, गड्ढे मच्छरों की जन्मस्थली होते हैं, एक प्रकार से गड्ढे चिकित्सकों को रोजगार प्रदान करने का साधन भी है। तो व्यंग्य गुदगुदी करता है, साथ ही उस व्यवस्था पर भी प्रहार करता है जो आम आदमी की पीड़ा है।


और जब वो लिखते हैं कि कुपोषण को दूर करने के तमाम प्रयास विफल होने पर सरकार के लिए अब आवश्यक है कि पोषण आहार में साबुन का वितरण किया जाना चाहिए क्योंकि मलाई, केसर, हल्दी, चंदन जैसे तत्व नहाने के स्थान पर खाने में अधिक उपयुक्त रहेंगे। तो भ्रमित करने वाले व्यवस्था और विज्ञापनों को चेलेंज करते है। कि सरकार की आंखों के सामने देश की जनता को मूर्ख बनाया जा रहा है। और सरकारी अमला मौन देख रहा है।
अखबार अब लोकतंत्र के जवाबदार स्तंभ नहीं रहे, ऐसे में सौरभ लिखते हैं कि अखबारों को उठाकर देखा जाए तो पेपर में ऊपर न्यूज़ होती है कि गर्मी से हाल बेहाल और ठीक नीचे ए सी पर भारी डिस्काउंट का विज्ञापन दिया रहता है। अब यह तो तंबाखू को बेचकर कैंसर के इलाज का मार्गदर्शन देने वाला युग है।


सौरभ लोकतंत्र की सबसे लच्चर हो चुकी व्यवस्था जिसे डेमोक्रेसी कहा जाता है। उस पर खुल कर लिखते हैं कि देश के विकास में जेलों का जो योगदान है, उसके मापने का यंत्र अब तक विकसित नहीं हो सका है। आजादी के काल से ही जेल में जाने का चलन प्रचलन में है। तब अंग्रेजों के अन्याय के विरुद्ध तथा जनता के हित के लिए नेता जेलों में जाया करते थे। लेकिन आज के नेता स्वयं का इतना हित कर लेते हैं कि उन्हें जेल जाने की नौबत आन पड़ती है। जेल में रहकर भी वे विकास पुरुष कहलाते हैं कुछ एक तो अंदर रहकर ही चुनाव जीत जाते हैं।
मोबाइल की लत पर वे चुटकी लेने से नहीं चुकते और लिखते है सेल्फी नामक संक्रामक रोग इसी तरह फैलता रहा तो कल को लोग भगवान के आगे ऐसी मन्नतें लेकर खड़े मिलेंगे, हे! प्रभु मेरी मुराद पूरी हो तो हो गई तो मैं 3 दिन तक कोई सेल्फी नहीं लूंगा। मतलब अन्न-जल त्याग वाली तपस्या डिजिटलीकरण के दौर में इस रूप में रूपांतरित होना तय है।"
असली डेमोक्रेसी होती है अफसर का तबादला करवाना लेकिन कोई अफरस खुद तबादला करवाना चाहे तो उपाय बताते हुए सौरभ लिखते है यदि किसी अधिकारी को अपना तबादला करवाना है तो उसे अपना काम ईमानदारी से करना प्रारंभ कर देना चाहिए आप ईमानदारी दिखाइए वे तबादला थामा देंगे।
डेमोक्रेसी स्वाहा के 52 व्यंग्यों में कोई भी व्यंग्य कथ्य और तथ्य के मामले में कमजोर नहीं लगता, हर व्यंग्य कुछ न कुछ कहता है। संग्रह के सभी व्यंग्य मध्यम आकार के है जो पाठकों को बोरियत महसूस नहीं होने देते है। और अपनी बात भी पूरी तरह से कह रहे हैं। 25 बसंत के पहले किसी मंझे हुए लेखक जैसा व्यंग्य संग्रह एक बड़े प्रकाशन से आना इस बात की पुष्टि करता है कि सौरभ में व्यंग्य के क्षेत्र में अपार संभावना दिखाई देती है। इस कृति के लिए सौरभ जैन बधाई के पात्र है। अशेष शुभकामनाएं...।
-संदीप सृजन
संपादक- शाश्वत सृजन
ए-99 वी.डी. मार्केट, उज्जैन 456006
मो. 09406649733


युवाओं का मार्गदर्शन करती कृति- जीना इसी का नाम है



*कृति- जीना इसी का नाम है
*लेखक- राजकुमार जैन राजन
*प्रकाशक- अयन प्रकाशन दिल्ली
*पृष्ठ-104 (सजील्द)
*मूल्य-200/-
वर्तमान में बाल साहित्य उन्नयन के लिए एक नाम देशभर में जाना पहचाना है, वह है श्री राजकुमार जैन राजन का, जो कि तन-मन और धन तीनों तरह से बाल साहित्य के लेखन, प्रकाशन और निःशुल्क वितरण के क्षेत्र में अपना अहम योगदान दे रहे हैं। बाल साहित्य के अलावा भी उनका अध्ययन और लेखन अन्य विषयों पर भी बहुत गहन रहा है, तीन दशक से भी अधिक समय से राजन जी संपादन के कार्य से जुड़े हुए हैं, कई सामाजिक, साहित्यिक पत्रिकाओं का अपने स्तर पर संपादन कर चुके हैं साथ ही कई महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं के विशेषांकों का संपादन भी आपने किया है। राजन जी के बाल साहित्य से इतर हुए रचनात्मक और प्रभावी लेखन का एक संकलन हाल ही में अयन प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है जीना इसी का नाम है ।
यह संकलन उनके द्वारा लिखे हुए संपादकीय लेखों का संकलन है।यह संकलन उनके अनुभव का पुलिंदा है जिसमें केवल नवनीत है। छाछ जैसा कुछ भी नहीं। इस कृति में उनके लिखे 29 लेख शामिल है, जो कि प्रकाशन के समय तो पाठकों की पसंद रहे ही है। लेकिन आज भी उनकी प्रासंगिकता कम नहीं होती है, पुस्तक का पहला लेख अपने आप में महत्वपूर्ण है पहले स्वयं का निर्माण करें शीर्षक से लिखे इस लेख में वे लिखते हैं- वर्तमान युग नैतिक दुर्भिक्ष का युग है जीवन में नैतिक और चारित्रिक मूल्य बिखरते जा रहे हैं, नष्ट होते जा रहे हैं, स्वार्थपरायणता और लोभवृत्ति ने मानव को इतना निकृष्ट बना दिया है कि नीति, सत्य, प्रामाणिकता, ईमानदारी, सदाचरण जैसे गुण छुटते जा रहे हैं।
वही दो अनुच्छेदों के बाद इसी लेख में वे लिखते हैं कि- आज राष्ट्र में चारों ओर आध्यात्मिक जागृति और नैतिक उत्थान के साथ समाज निर्माण और राष्ट्र निर्माण की चर्चा है निर्माण भले ही किसी भी स्तर पर क्यों न हो वह स्वागत योग्य है। जो कि अनैतिकता के बीच नैतिक संस्कारों की पैरवी है। अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने का एक सफल प्रयास है। प्रकृति के माध्यम से भी इस लेख में उन्होंने बहुत कुछ कहा है।
जीवन कितना है यह हम सब जानते हैं, पर कैसा हो यह नहीं शायद इसीलिए राजनजी लिखते हैं जीवन की समग्रता के बारे में सोचें इस लेख में बहुत कुछ वह लिखा गया है जो आज जेएनयू में घटित हो रहा है- इतनी शिक्षा के बावजूद आज समाज में हिंसा और अशांति बढ़ती जा रही है। उग्रवाद और आतंकवाद बढ़ रहा है इसका कारण क्यों नहीं खोजा जाता? उनकी चिंता सही भी है। आगे वे लिखते है- अतीत में भी अच्छाइयां और बुराइयां थी, लेकिन वह अच्छाइयों पर हावी नहीं थी। बुरे लोग कृष्ण के समय में भी थे और महावीर के समय में भी थे लेकिन इसका अनुपात में असंतुलन में नहीं था, जैसे-जैसे उपभोक्तावाद बढ़ा तो बुराई के रूप में हिंसा और अपराध भी बढ़े। भ्रष्टाचार जैसी बुराई भी इसी उपभोक्तावाद की देन है । जिस समय यह लेख लिखा गया था उस समय से आज की स्थिती और बद्तर है।


इस पुस्तक के अच्छे लेखों में नारी ने विकास के नए आयाम छुआ है को मानता हूँ। जिस तरह पौराणिक नारी और वर्तमान की नारी पर अच्छी कलम राजनजी ने चलाई है वे लिखते है- नारी के विकास के लिए चार तत्व होते हैं शिक्षा, दृढ़ इच्छाशक्ति अर्थात संभल होना,शक्ति अर्थात सबल होना,स्वावलंबी और स्वतंत्रता अर्थात छोटे-छोटे निर्णय लेने की क्षमता। इन चारों तत्वों से परिपूर्ण नारी परिवार का ही नहीं स्वच्छ समाज का भी निर्माण कर सकेगी।
पारिवारिक विघटन के दौर में लेख रिश्तो को डिस्पोजल होने से बचाएं भी प्रासंगिक बन पड़ा है। अन्य लेख जैसे व्यर्थ को दे अर्थ, कोशिश करने वालों की हार नहीं होती, समस्या की मिट्टी में समाधान का अंकुर फूटता है, व्यक्ति अपने जीवन का स्वयं वास्तु शिल्पी है मोटिवेशन करते है। अधिकांश लेख इसी शैली के है। जो कि समय की मांग के साथ अनिवार्य भी है। अन्य लेखों में पुस्तक पढ़ने और संरक्षण के उपर दो लेख तथा राष्ट्रीयता पर केन्द्रीत तीन लेख, मातृभाषा पर एक लेख के साथ ही अन्य विषयों पर है जो आदर्श समाज के लिए और हमारी नई पौध के लिए बेहद जरुरी है।
पुस्तक का प्रकाशन आकर्षक है वहीं सजा-सज्जा भी सुंदर है लेकिन एक बात की कमी इस कृति में खलती है। जो लेख राजन जी ने लगभग 2 से 3 दशक पूर्व लिखे है वह तब से लेकर आजतक भी प्रासंगिक हैं, इसलिए उन लेखों के अंत में पत्रिका का नाम और प्रकाशन वर्ष भी दिया जाता तो ज्यादा अच्छा रहता ताकि पता चल सके कि जो समस्याएं या जो स्थितियां दो-तीन दशक पूर्व समाज में थी आज भी है और भविष्य उनके निराकरण की राह देख रहा है। साथ ही प्रुफ पर भी थोड़ा ध्यान दिया जाना जरुरी था।
चूंकि राजनजी बाल साहित्य के सृजन और प्रकाशन के विशेष पक्षधर है ऐसे में उनकी यह कृति बच्चे से युवा होते देश के भविष्य के मार्गदर्शन का काम करेंगी। एक अच्छी पुस्तक समाज को देने के लिए राजनजी बधाई के पात्र है।
*समीक्षक
 संदीप सृजन
 संपादक- शाश्वत सृजन
 ए-99 वी.डी. मार्केट, उज्जैन 456006
 मो. 09406649733