गांधी दर्शन से रूबरू करवाती कृति-‘महात्मा गांधीः विचार और नवाचार'

 

*संकलन* महात्मा गांधीः विचार और नवाचार *संपादक* प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा *प्रकाशकविक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन

भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में मोहनदास करमचंद गांधी का प्रवेश एक चमत्कारिक व्यक्तित्व का प्रवेश था। मोहनदास गांधी जो बैरिस्टर से महात्मा तक की उपाधियों से अलंकृत हुए और स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रपिता के रूप में स्वीकार किए गये उनका जीवन दर्शन और आचरण किसी भी महामानव से कम नहीं है। साहित्य और समाज में जितना चिंतन- मनन तुलसीदासजी के साहित्य पर हुआ उतना किसी पर नहीं हुआ। गांधी जी पर भी तुलसीदासजी का गहन प्रभाव रहा। यही वजह रही की वे सदैव राम राज के पक्षधर रहे। पिछले सौ सालों में जितना साहित्य गांधी जी को लेकर लिखा गया, उनके आदर्श जीवन पर जितनी व्याख्याएँ की गई । उतना लेखन शायद ही किसी महापुरुष पर हुआ होगा।

भारत सहित सारे विश्व में गांधीजी के 150 वें जन्म वर्ष में वर्ष पर्यंत कई आयोजन हुए, और कई प्रकाशन समाज में आए। उज्जैन के विक्रम विश्वविद्यालय द्वारा भी इस अवसर को यादगार बनाने की पहल की गई और हिंदी के आचार्य प्रो. शैलेन्द्र कुमार शर्मा के संपादन में एक महत्वपूर्ण कृति 'महात्मा गांधीः विचार और नवाचार' का प्रकाशन किया गया। इस कृति में 21 चिंतकों ने महात्मा गांधी के जीवन के विभिन्न पहलुओं पर अपनी लेखनी चलाई और गांधी जी के जीवन को सरल शब्दों में समाज के सामने रखने का उपक्रम किया है। जो कि सराहनीय है।

गांधी जी अपने समय के तमाम महापुरुषों में बिरले थे क्योंकि उन्होंने सत्य और नैतिक जीवन को सिर्फ जीया ही नहीं लिखने का साहस भी किया। अपने आदर्शो को तो समाज के सामने रखा पर अपने जीवन की बुराइयों को छुपाने की कोशिश भी नहीं की। यह उनकी सत्यनिष्ठा को दर्शाता है।

गांधी जी को वैष्णव संस्कार अपनी माँ से जनम घुट्टी के साथ मिले थे। और वे ही उनके आदर्श रहे इस बात पर प्रकाश डालते हुए विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बालकृष्ण शर्मा ने लिखते है कि गांधी जी के जीवन में नरसी मेहता के भजन वैष्णव जन तो तेने कहिये का बहुत प्रभाव रहा। और इसी भजन की सरल शब्दों में उन्होंने व्याख्या की है। इस भजन को ही गांधीजी ने अपने जीवन में अंगीकार किया। इस भजन में उल्लेखित गुण परोपकार, निंदा न करना, छल कपट रहित जीवन, इंद्रियों पर नियंत्रण, सम दृष्टि रहना, पर स्त्री को माता मानना, असत्य नहीं बोलना, चोरी न करना को जीवन पर्यंत अपनाया और इन्हीं के द्वारा भारत में राम राज की स्थापना की संकल्पना की। ये गुण ही मोहनदास गांधी को महात्मा गांधी बनाते है।

गांधीजी आधुनिक भारत के अकेले नेता थे जो किसी एक वर्ग एक विषय एक लक्ष्य को लेकर नहीं चले, जन-जन के नेता थे, करोड़ों लोगों के ह्रदय पर राज करते थे, इस बात के साथ हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक डॉ मुक्ता ने गांधीजी के मुख्य सरकारों पर केंद्रित लेख में लिखा है कि गांधीजी साम्राज्यवादजातिय सांप्रदायिक समस्या, भाषा नीति और सामाजिक सुधार पर अपने व्यक्तिगत और राष्ट्रीय सरोकार जो की गांधी को महान विभूति बनाते है।

गांधीजी का प्रभाव देश के हर वर्ग पर रहा है, हरेक जाति हरेक समाज के लोग उनसे प्रभावित रहे हैं , तो साहित्य जगत उनसे कैसे अछूता रह सकता था। इसी बात पर संकलन के संपादक और विक्रम विश्वविद्यालय के कुलानुशासक डॉ शैलेन्द्रकुमार शर्मा ने प्रकाश डाला  है। गांधीजी के विभिन्न पहलुओं पर तात्कालिक लेखकों ने अपनी भाषा, अपनी बोली में गांधीजी के जीवनकाल में ही महान रुप में स्वीकार कर लिया था, जिनमें देश के नामचीन लेखक और कवि मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी बालकृष्ण नवीन ,सियारामशरण गुप्त, प्रेमचंद ,निराला, सुभद्रा कुमारी चौहान, दिनकर आदि कोई भी गांधीजी के विचारों से अछूते नहीं रहे हैं। इस विस्तृत लेख में गांधीजी के जीवन और उनकी कार्यशैली तथा जन आस्था को काफी अच्छे ढंग से समझाया गया है जो कि इस कृति का एक महत्वपूर्ण आलेख है।

अन्य आलेखों में डॉ राकेश पांडेय का प्रवासी साहित्य, समाज और गांधी”, डॉ मंजु तिवारी का का लोकगीतों का अकेला लोकोत्तर नायक गांधी”, डॉ पूरन सहगल का अनंत लोक के महानायक गांधी”, डॉ सत्यकेतु सांकृत का महात्मा गांधी और छात्र राजनीति”, डॉ जगदीशचन्द्र शर्मा का महात्मा गांधी का भाषा चिंतन”, डॉ प्रतिष्ठा शर्मा का महात्मा गांधी का हिंदी भाषायी प्रेम इस संकलन के महत्वपूर्ण आलेख है। जो गांधीजी के बारे में नयी पीढ़ी को काफी कुछ समझा सकते है। अन्य लेख और तीन कविताएँ गांधीजी के प्रति आस्था और सम्मान प्रदर्शीत करते हुए कुछ तथ्यात्मक जानकारी देते है और उपयोगी है।

2 अक्टूबर 2020 को गांधी जन्म को 151 साल पूरे हो रहे है। ऐसे महत्वपूर्ण समय पर गांधी दर्शन से पुन: समाज को रूबरू करवाती यह कृति भी महत्वपूर्ण है। बढ़िया आर्टपेपर पर रंगीन चित्रावली के साथ इस संकलन को विक्रम विश्व विद्यालय ने प्रकाशित करवाया है। अंत में गांधी जी के 150 वें जन्म वर्ष पर विश्व विद्यालय के विभिन्न आयोजनों की सचित्र रपट भी दी गई है। यह संकलन भविष्य में बहुउपयोगी होगा ऐसा विश्वास है । महत्वपूर्ण कृति के लिए विक्रम विश्वविद्यालय और संपादक प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा बधाई के पात्र है।

चर्चाकार-संदीप सृजन

संपादक- शाश्वत सृजन

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हर दिन को हिंदी दिवस बनाना होगा

सितम्बर की हवाओं में न जाने कौन सी मादकता है कि हिंदी के दिवाने झूमने लगते है। देश के कोने- कोने से समाचार आने लगते है कि हिंदी को बढ़ावा मिले इसके लिए महानगर, शहर, गॉव, गली, मुहल्लों में संगोष्ठी की जा रही है। कवि गोष्ठी की जा रही है। लोगों को हिंदी के प्रति आकर्षित करने के लिए तरह तरह के आयोजन किए जा रहे है। इस वर्ष कोरोना के चलते सारे आंदोलन अन्तर्जाल पर संचलित हो रहे है।

हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की मांग इस तरह की गतिविधियों का संचालन कुछ हिंदी प्रेमी करते है। लेकिन आठ-दस हजार की जनसंख्या वाले किसी गॉव में होने वाले इन आयोजनों में भागीदारी करने वालों की संख्या देखें तो चौकाने वाली होगी। मात्र दस- बीस लोग ही इस तरह के आयोजनों में भागीदार दिखेंगे। नगर हो या महानगर हो अधिकतम सौ-डेढ सौ लोग हिंदी के नाम पर आयोजित किसी चर्चा में उपस्थित होते है। जो कि आंदोलन को अपने बलबुते पर चला रहे है। अपनी मांग रखते आ रहे है। लेकिन हिंदी को राजभाषा से राष्ट्रभाषा बनाने के तमाम प्रयास पिछले सात दशक से आज तक ज्यों के त्यों है। हिंदी के नाम पर संघर्ष के लिए तीसरी पीढ़ी तैयार हो गई पर संघर्ष खत्म होने के आसार नहीं दिख रहे।

साहित्यिक आंदोलनों से परिवर्तन की पहल सदा से होती रही है। पर जब तक राजकीय इच्छा शक्ति का साथ नहीं हो तब तक हिंदी दिवस या हिंदी माह मना लेने भर से हिंदी को राष्ट्रभाषा हम नहीं बना सकते। नई शिक्षा नीति में जो मातृभाषा के लिए प्रावधान किए गये है वो सुखद है। उम्मीद की किरण है। और एक मजबूत राह है। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए।

हिंदी को सम्मान दिलाने के लिए सरकार से अपनी मांग बनाए रखना तो ठीक है पर हिंदी से पहले मातृभाषा याने लोकभाषाओं को जीवित रखने के लिए व्यवहारिक प्रयास हमें करने होंगे। लोगों को अपनी मातृभाषा के आरंभिक संस्कार घर से ही मिलते हैं, जिसमें परिवार की महिलाओं की अहम् भूमिका होती है। जो भाषा घुट्टी में मिली हो उसी भाषा को मातृभाषा कहा जाता है। मातृभाषा शब्द केवल मां का पर्याय नहीं होता है वह हमारे मूल परिवेश को इंगित करता है जिसमें व्यक्ति का बचपन बीता है। जिसमें जीवन की शुरुआत हुई हो।

हम मध्यप्रदेश की लोक भाषाओं कि ही बात करे तो मालवी, निमाड़ी, बुंदेली, बघेली, गोंड़वी, ब्रज, भीली, कोरकू, बेगी, आदि जो लोक भाषाएँ है वे हाशिए पर आ गई है। कुछ बोलियों के बोलने वाले तो केवल ग्रामीण या आदिवासी अंचल में रह गये है। नई पीढ़ी अपनी पारम्परिक बोली में बात करने में शर्म महसूस करती है। कुछ शब्द तो हमारी पीढ़ी ने भी इन लोकभाषाओं के नहीं सुने है। जो शब्द रहे है उसे भी बोलने वाले अब विदा हो रहे हैं। जो कि एक बोली का अवसान नहीं एक संस्कृति का एक सभ्यता का और एक परम्परा का अवसान है।

हिन्दी की समृद्धि में लोकभाषाओं का, बोलियों का अहम योगदान रहा है। आज जो हिंदी का स्वरूप है। उसमें भारत की हर बोली, हर भाषा का अंश है। जो हिंदी को वैश्विक पटल पर बड़ी पहचान दिलाता है। हम रहन-सहन से कितने भी आधुनिक हो पर आने वाली पीढ़ी की जड़े यदि मजबूत रखना चाहते है, संस्कार और सभ्यता को बचाना है तो स्थानीय व्यवहार में, व्यापार में और बोलचाल में अपनी लोकभाषा को महत्व देना होगा । बाहरी व्यवहार में जहॉ उस बोली को समझा नहीं जा सके वहॉ हिंदी को महत्व दे। आज हिंदी पूरे भारत में पढ़ी और आसानी से समझी जा रही है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अब हिंदी का डंका बज रहा है। गुगल जैसा वैश्विक मंच हिंदी को पूरा महत्व देते हुए सारी जानकारी हिंदी में उपलब्ध करवा रहा है। 

अंग्रेजी या अन्य विदेशी भाषा में दक्षता प्राप्त करना बुरा नहीं है। यह अतिरिक्त योग्यता है। जो हर किसी में होना चाहिए लेकिन अपनी बोली अपनी भाषा और अपनी राष्ट्रभाषा को छोड़ कर नहीं। हिंदी को और स्थानीय भाषाओं को यदि सम्मान दिलाना है तो पाठ्य पुस्तक से निर्मित मानव से कुछ नहीं होगा। इसके लिए हमें अपने परिवेश अपनी विचारधारा और अपने कर्तव्यों में हिंदी का उपयोग करना होगा।

वे तमाम लोग जो हिंदी के लिए आंदोलन कर रहे हैं उनको सबसे पहले अपने लिए नियम बनाना होंगे कि हम बच्चों से पढ़ाई के समय को छोड़कर हिंदी का अधिकतम उपयोग करेंगे। हमारा जोर हिंदी के शब्दों और अभिव्यक्तियों के प्रयोग पर रहेगा। हमारे बच्चे का दिमाग हिंदी में भी अन्य भाषाओं की अपेक्षा समान रूप से चलेगा, उनकी हिंदी कामचलाऊ या हंग्लिश ना होकर स्तरीय होगी। केवल 14 सितम्बर को ही नहीं हर दिन को हिंदी दिवस बनाना होगा। तभी हिंदी को राष्ट्रभाषा का सम्मान प्राप्त होगा।

-संदीप सृजन

संपादक-शाश्वत सृजन

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