आदर्श जीवन की मिसाल गांधीजी और शास्त्रीजी

 


महात्मा गांधी और लाल बहादुर शास्त्री ऐसे दो महामानव जो भारत के भाग्य विधाता रहे, जिनकी विचार धारा एक दुसरे की पूरक रही। जो देश के लिए जिए और देश के हित में ही काल के ग्रास बने । देश और समाज के प्रति दोनों की समर्पण भावना में किंचित मात्र भी संदेह नहीं किया जा सकता है। ऐसे दोनों महापुरुषों का जन्म दिन एक साथ होना भी किसी महान संयोग से कम नहीं है।

गांधीजी अहिंसा के प्रबल समर्थक, शांति के अग्रदूत‌ रहे। तो शास्त्री जी दृढ़ इच्छा शक्ति के व्यक्तित्व बनकर समाज में उभरे। गांधी जी के जीवन ने न केवल भारतीय समाज को प्रभावित किया वरन विश्व के तमाम देशों में उनके जीवन को आदर्श जीवन के आधार माना जाता है। तो शास्त्री जी की नैतिक कार्यशैली और दूरदर्शिता का कोई सानी नहीं है। वर्तमान समय में बढ़ती भूखमरी, बेरोजगारी, विश्व हिंसा, वैश्विक आर्थिक मंदी और आपसी वैमनस्यता जैसी समस्याओं से सारा विश्व आहत है। ऐसे समय में महात्मा गांधी और शास्त्री जी के विचारों की प्रासंगिकता और अधिक हो जाती है। तथा उनके कार्यों के अनुसरण से विश्व की तमाम समस्याओं का हल हो सकता है।

गांधी जी अपने समय के तमाम महापुरुषों में बिरले थे क्योंकि उन्होंने सत्य और नैतिक जीवन को सिर्फ जीया ही नहीं लिखने का साहस भी किया। अपने आदर्शो को तो समाज के सामने रखा पर अपने जीवन की बुराइयों को छुपाने की कोशिश भी नहीं की। यह उनकी सत्यनिष्ठा को दर्शाता है।

गांधी जी को वैष्णव संस्कार अपनी माँ से जनम घुट्टी के साथ मिले थे। गांधी जी के जीवन में नरसी मेहता के भजन वैष्णव जन तो तेने कहिये का बहुत प्रभाव रहा। इस भजन को ही गांधीजी ने अपने जीवन में अंगीकार किया। इस भजन में उल्लेखित गुण परोपकार, निंदा न करना, छल कपट रहित जीवन, इंद्रियों पर नियंत्रण, सम दृष्टि रहना, पर स्त्री को माता मानना, असत्य नहीं बोलना, चोरी न करना को जीवन पर्यंत अपनाया और इन्हीं के द्वारा भारत में राम राज की स्थापना की संकल्पना की। ये गुण ही मोहनदास गांधी को महात्मा गांधी बनाते है।

वहीं लाल बहादुर शास्त्री बचपन से अभावों में पले और बड़े हुए लेकिन अपने मितव्ययी और आत्मनिर्भर स्वभाव के चलते हर हाल में खुश रहने वाले व्यक्तियों में थे। बड़े होने के साथ ही लाल बहादुर शास्त्री विदेशी दासता से आजादी के लिए देश के संघर्ष में अधिक रुचि रखने लगे। वे महात्मा गांधी द्वारा चलाए जा रहे स्वाधिनता आंदोलन से प्रभावित थे। लाल बहादुर शास्त्री जब केवल ग्यारह वर्ष के थे तब से ही उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर कुछ करने का मन बना लिया था।

गांधी जी ने असहयोग आंदोलन में शामिल होने के लिए अपने देशवासियों से आह्वान किया था, इस समय लाल बहादुर शास्त्री केवल सोलह वर्ष के थे। उन्होंने महात्मा गांधी के इस आह्वान पर अपनी पढ़ाई छोड़ देने का निर्णय कर लिया था। उनके इस निर्णय ने उनकी मां की उम्मीदें तोड़ दीं। उनके परिवार ने उनके इस निर्णय को गलत बताते हुए उन्हें रोकने की बहुत कोशिश की लेकिन वे इसमें असफल रहे। लाल बहादुर ने अपना मन बना लिया था। उनके सभी करीबी लोगों को यह पता था कि एक बार मन बना लेने के बाद वे अपना निर्णय कभी नहीं बदलेंगें क्योंकि बाहर से विनम्र दिखने वाले लाल बहादुर अन्दर से चट्टान की तरह दृढ़ हैं।

गांधीजी आधुनिक भारत के अकेले नेता थे जो किसी एक वर्ग एक विषय एक लक्ष्य को लेकर नहीं चले, जन-जन के नेता थे, करोड़ों लोगों के ह्रदय पर राज करते थे, गांधीजी साम्राज्यवादजातिय सांप्रदायिक समस्या, भाषा नीति और सामाजिक सुधार पर अपने व्यक्तिगत और राष्ट्रीय सरोकार जो की गांधी को महान विभूति बनाते है।

वहीं शास्त्री जी ने भी स्वतंत्रता के पहले गांधीजी के साथ नमक कानून को तोड़ते हुए दांडी यात्रा की। इस प्रतीकात्मक सन्देश ने पूरे देश में एक तरह की क्रांति ला दी। लाल बहादुर शास्त्री विह्वल ऊर्जा के साथ स्वतंत्रता के इस संघर्ष में शामिल हो गए। उन्होंने कई विद्रोही अभियानों का नेतृत्व किया एवं कुल सात वर्षों तक ब्रिटिश जेलों में रहे। आजादी के इस संघर्ष ने उन्हें पूर्णतः परिपक्व बना दिया।

स्वतंत्र भारत में शास्त्री जी ने केंद्रीय मंत्रिमंडल के कई विभागों का प्रभार संभाला रेल मंत्री; परिवहन एवं संचार मंत्री; वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री; गृह मंत्री एवं नेहरू जी की बीमारी के दौरान बिना विभाग के मंत्री रहे। एक रेल दुर्घटना, जिसमें कई लोग मारे गए थे, के लिए स्वयं को जिम्मेदार मानते हुए उन्होंने रेल मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। लेकिन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने इस्तीफा स्वीकार नहीं किया। रेल दुर्घटना पर लंबी बहस का जवाब देते हुए लाल बहादुर शास्त्री ने कहा; “शायद मेरे लंबाई में छोटे होने एवं नम्र होने के कारण लोगों को लगता है कि मैं बहुत दृढ नहीं हो पा रहा हूँ। यद्यपि शारीरिक रूप से में मैं मजबूत नहीं है लेकिन मुझे लगता है कि मैं आंतरिक रूप से इतना कमजोर भी नहीं हूँ।

सारे विश्व के लिए समरसता, सद्भाव, अहिंसा और सत्य की बात करने वाले गांधी जी भारतीय स्वतंत्रता संगाम के वो चमत्कारिक नायक बने जिनके एक आव्हान पर भारत का समूचा जनमानस एकत्रित और संगठित रूप में ब्रिटिश शासकों के विरुद्ध खड़ा हो गया था। गांधी जी ने नस्लभेद मिटाने के साथ हिंदु समाज के अविभाज्य अंग को हरिजन नाम दिया और हिन्दू-मुस्लिम में एकता स्थापित करने के कई प्रयास भी किए। उन्होंने चंपारण से स्वाधीनता की बिगुल बजाई और खिलाफत में हिंदू-मुस्लिम की एकता की मिसाल पेश की वह अद्भुत थी।

वहीं तीस से अधिक वर्षों तक अपनी समर्पित सेवा के दौरान लाल बहादुर शास्त्री अपनी उदात्त निष्ठा एवं क्षमता के लिए लोगों के बीच प्रसिद्ध हो गए थे। विनम्र, दृढ, सहिष्णु एवं जबर्दस्त आंतरिक शक्ति वाले शास्त्री जी लोगों के बीच ऐसे व्यक्ति बनकर उभरे जिन्होंने लोगों की भावनाओं को समझा। वे दूरदर्शी थे जो देश को प्रगति के मार्ग पर लेकर आये। लाल बहादुर शास्त्री महात्मा गांधी के राजनीतिक शिक्षाओं से अत्यंत प्रभावित थे। अपने गुरु महात्मा गाँधी के ही लहजे में एक बार उन्होंने कहा था – “मेहनत प्रार्थना करने के समान है।उन्होने ही देश को जय जवान-जय किसान का नारा दिया। महात्मा गांधी के समान विचार रखने वाले लाल बहादुर शास्त्री भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठ पहचान हैं।

2 अक्टूबर 1869 को गांधी जी और 2 अक्टूबर 1904 को लाल बहादुर शास्त्री का जन्म हुआ और दोनों महामानवों के विचार और वैचारिक दृढ़ता में अद्भूत सामंजस्य था। दोनों ने भारत को आजादी दिलाने के लिए तन-मन-धन से लोगों को जोड़ा साथ ही स्वावलंबी समाज की और जन-जन को प्रवृत किया। वहीं नैतिक जीवन जी कर समाज को संदेश दिया जो कि सामान्य मनुष्य के लिए संभव नहीं होता है। यह वजह रही होगी की उस समय महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने गांधी जी के बारे में  बिलकुल सटीक कहा था कि भविष्य की पीढ़ियों को इस बात पर विश्वास करने में मुश्किल होगी कि हाड़-मांस से बना ऐसा कोई व्यक्ति भी कभी धरती पर आया था। वही लाल बहादुर शास्त्री के बारे में कहा जाता है कि वे छोटे कद के बड़े व्यक्ति थे। दोनों महापुरुषों को सादर नमन...।

-संदीप सृजन

संपादक- शाश्वत सृजन

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गांधी दर्शन से रूबरू करवाती कृति-‘महात्मा गांधीः विचार और नवाचार'

 

*संकलन* महात्मा गांधीः विचार और नवाचार *संपादक* प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा *प्रकाशकविक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन

भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में मोहनदास करमचंद गांधी का प्रवेश एक चमत्कारिक व्यक्तित्व का प्रवेश था। मोहनदास गांधी जो बैरिस्टर से महात्मा तक की उपाधियों से अलंकृत हुए और स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रपिता के रूप में स्वीकार किए गये उनका जीवन दर्शन और आचरण किसी भी महामानव से कम नहीं है। साहित्य और समाज में जितना चिंतन- मनन तुलसीदासजी के साहित्य पर हुआ उतना किसी पर नहीं हुआ। गांधी जी पर भी तुलसीदासजी का गहन प्रभाव रहा। यही वजह रही की वे सदैव राम राज के पक्षधर रहे। पिछले सौ सालों में जितना साहित्य गांधी जी को लेकर लिखा गया, उनके आदर्श जीवन पर जितनी व्याख्याएँ की गई । उतना लेखन शायद ही किसी महापुरुष पर हुआ होगा।

भारत सहित सारे विश्व में गांधीजी के 150 वें जन्म वर्ष में वर्ष पर्यंत कई आयोजन हुए, और कई प्रकाशन समाज में आए। उज्जैन के विक्रम विश्वविद्यालय द्वारा भी इस अवसर को यादगार बनाने की पहल की गई और हिंदी के आचार्य प्रो. शैलेन्द्र कुमार शर्मा के संपादन में एक महत्वपूर्ण कृति 'महात्मा गांधीः विचार और नवाचार' का प्रकाशन किया गया। इस कृति में 21 चिंतकों ने महात्मा गांधी के जीवन के विभिन्न पहलुओं पर अपनी लेखनी चलाई और गांधी जी के जीवन को सरल शब्दों में समाज के सामने रखने का उपक्रम किया है। जो कि सराहनीय है।

गांधी जी अपने समय के तमाम महापुरुषों में बिरले थे क्योंकि उन्होंने सत्य और नैतिक जीवन को सिर्फ जीया ही नहीं लिखने का साहस भी किया। अपने आदर्शो को तो समाज के सामने रखा पर अपने जीवन की बुराइयों को छुपाने की कोशिश भी नहीं की। यह उनकी सत्यनिष्ठा को दर्शाता है।

गांधी जी को वैष्णव संस्कार अपनी माँ से जनम घुट्टी के साथ मिले थे। और वे ही उनके आदर्श रहे इस बात पर प्रकाश डालते हुए विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बालकृष्ण शर्मा ने लिखते है कि गांधी जी के जीवन में नरसी मेहता के भजन वैष्णव जन तो तेने कहिये का बहुत प्रभाव रहा। और इसी भजन की सरल शब्दों में उन्होंने व्याख्या की है। इस भजन को ही गांधीजी ने अपने जीवन में अंगीकार किया। इस भजन में उल्लेखित गुण परोपकार, निंदा न करना, छल कपट रहित जीवन, इंद्रियों पर नियंत्रण, सम दृष्टि रहना, पर स्त्री को माता मानना, असत्य नहीं बोलना, चोरी न करना को जीवन पर्यंत अपनाया और इन्हीं के द्वारा भारत में राम राज की स्थापना की संकल्पना की। ये गुण ही मोहनदास गांधी को महात्मा गांधी बनाते है।

गांधीजी आधुनिक भारत के अकेले नेता थे जो किसी एक वर्ग एक विषय एक लक्ष्य को लेकर नहीं चले, जन-जन के नेता थे, करोड़ों लोगों के ह्रदय पर राज करते थे, इस बात के साथ हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक डॉ मुक्ता ने गांधीजी के मुख्य सरकारों पर केंद्रित लेख में लिखा है कि गांधीजी साम्राज्यवादजातिय सांप्रदायिक समस्या, भाषा नीति और सामाजिक सुधार पर अपने व्यक्तिगत और राष्ट्रीय सरोकार जो की गांधी को महान विभूति बनाते है।

गांधीजी का प्रभाव देश के हर वर्ग पर रहा है, हरेक जाति हरेक समाज के लोग उनसे प्रभावित रहे हैं , तो साहित्य जगत उनसे कैसे अछूता रह सकता था। इसी बात पर संकलन के संपादक और विक्रम विश्वविद्यालय के कुलानुशासक डॉ शैलेन्द्रकुमार शर्मा ने प्रकाश डाला  है। गांधीजी के विभिन्न पहलुओं पर तात्कालिक लेखकों ने अपनी भाषा, अपनी बोली में गांधीजी के जीवनकाल में ही महान रुप में स्वीकार कर लिया था, जिनमें देश के नामचीन लेखक और कवि मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी बालकृष्ण नवीन ,सियारामशरण गुप्त, प्रेमचंद ,निराला, सुभद्रा कुमारी चौहान, दिनकर आदि कोई भी गांधीजी के विचारों से अछूते नहीं रहे हैं। इस विस्तृत लेख में गांधीजी के जीवन और उनकी कार्यशैली तथा जन आस्था को काफी अच्छे ढंग से समझाया गया है जो कि इस कृति का एक महत्वपूर्ण आलेख है।

अन्य आलेखों में डॉ राकेश पांडेय का प्रवासी साहित्य, समाज और गांधी”, डॉ मंजु तिवारी का का लोकगीतों का अकेला लोकोत्तर नायक गांधी”, डॉ पूरन सहगल का अनंत लोक के महानायक गांधी”, डॉ सत्यकेतु सांकृत का महात्मा गांधी और छात्र राजनीति”, डॉ जगदीशचन्द्र शर्मा का महात्मा गांधी का भाषा चिंतन”, डॉ प्रतिष्ठा शर्मा का महात्मा गांधी का हिंदी भाषायी प्रेम इस संकलन के महत्वपूर्ण आलेख है। जो गांधीजी के बारे में नयी पीढ़ी को काफी कुछ समझा सकते है। अन्य लेख और तीन कविताएँ गांधीजी के प्रति आस्था और सम्मान प्रदर्शीत करते हुए कुछ तथ्यात्मक जानकारी देते है और उपयोगी है।

2 अक्टूबर 2020 को गांधी जन्म को 151 साल पूरे हो रहे है। ऐसे महत्वपूर्ण समय पर गांधी दर्शन से पुन: समाज को रूबरू करवाती यह कृति भी महत्वपूर्ण है। बढ़िया आर्टपेपर पर रंगीन चित्रावली के साथ इस संकलन को विक्रम विश्व विद्यालय ने प्रकाशित करवाया है। अंत में गांधी जी के 150 वें जन्म वर्ष पर विश्व विद्यालय के विभिन्न आयोजनों की सचित्र रपट भी दी गई है। यह संकलन भविष्य में बहुउपयोगी होगा ऐसा विश्वास है । महत्वपूर्ण कृति के लिए विक्रम विश्वविद्यालय और संपादक प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा बधाई के पात्र है।

चर्चाकार-संदीप सृजन

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हर दिन को हिंदी दिवस बनाना होगा

सितम्बर की हवाओं में न जाने कौन सी मादकता है कि हिंदी के दिवाने झूमने लगते है। देश के कोने- कोने से समाचार आने लगते है कि हिंदी को बढ़ावा मिले इसके लिए महानगर, शहर, गॉव, गली, मुहल्लों में संगोष्ठी की जा रही है। कवि गोष्ठी की जा रही है। लोगों को हिंदी के प्रति आकर्षित करने के लिए तरह तरह के आयोजन किए जा रहे है। इस वर्ष कोरोना के चलते सारे आंदोलन अन्तर्जाल पर संचलित हो रहे है।

हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की मांग इस तरह की गतिविधियों का संचालन कुछ हिंदी प्रेमी करते है। लेकिन आठ-दस हजार की जनसंख्या वाले किसी गॉव में होने वाले इन आयोजनों में भागीदारी करने वालों की संख्या देखें तो चौकाने वाली होगी। मात्र दस- बीस लोग ही इस तरह के आयोजनों में भागीदार दिखेंगे। नगर हो या महानगर हो अधिकतम सौ-डेढ सौ लोग हिंदी के नाम पर आयोजित किसी चर्चा में उपस्थित होते है। जो कि आंदोलन को अपने बलबुते पर चला रहे है। अपनी मांग रखते आ रहे है। लेकिन हिंदी को राजभाषा से राष्ट्रभाषा बनाने के तमाम प्रयास पिछले सात दशक से आज तक ज्यों के त्यों है। हिंदी के नाम पर संघर्ष के लिए तीसरी पीढ़ी तैयार हो गई पर संघर्ष खत्म होने के आसार नहीं दिख रहे।

साहित्यिक आंदोलनों से परिवर्तन की पहल सदा से होती रही है। पर जब तक राजकीय इच्छा शक्ति का साथ नहीं हो तब तक हिंदी दिवस या हिंदी माह मना लेने भर से हिंदी को राष्ट्रभाषा हम नहीं बना सकते। नई शिक्षा नीति में जो मातृभाषा के लिए प्रावधान किए गये है वो सुखद है। उम्मीद की किरण है। और एक मजबूत राह है। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए।

हिंदी को सम्मान दिलाने के लिए सरकार से अपनी मांग बनाए रखना तो ठीक है पर हिंदी से पहले मातृभाषा याने लोकभाषाओं को जीवित रखने के लिए व्यवहारिक प्रयास हमें करने होंगे। लोगों को अपनी मातृभाषा के आरंभिक संस्कार घर से ही मिलते हैं, जिसमें परिवार की महिलाओं की अहम् भूमिका होती है। जो भाषा घुट्टी में मिली हो उसी भाषा को मातृभाषा कहा जाता है। मातृभाषा शब्द केवल मां का पर्याय नहीं होता है वह हमारे मूल परिवेश को इंगित करता है जिसमें व्यक्ति का बचपन बीता है। जिसमें जीवन की शुरुआत हुई हो।

हम मध्यप्रदेश की लोक भाषाओं कि ही बात करे तो मालवी, निमाड़ी, बुंदेली, बघेली, गोंड़वी, ब्रज, भीली, कोरकू, बेगी, आदि जो लोक भाषाएँ है वे हाशिए पर आ गई है। कुछ बोलियों के बोलने वाले तो केवल ग्रामीण या आदिवासी अंचल में रह गये है। नई पीढ़ी अपनी पारम्परिक बोली में बात करने में शर्म महसूस करती है। कुछ शब्द तो हमारी पीढ़ी ने भी इन लोकभाषाओं के नहीं सुने है। जो शब्द रहे है उसे भी बोलने वाले अब विदा हो रहे हैं। जो कि एक बोली का अवसान नहीं एक संस्कृति का एक सभ्यता का और एक परम्परा का अवसान है।

हिन्दी की समृद्धि में लोकभाषाओं का, बोलियों का अहम योगदान रहा है। आज जो हिंदी का स्वरूप है। उसमें भारत की हर बोली, हर भाषा का अंश है। जो हिंदी को वैश्विक पटल पर बड़ी पहचान दिलाता है। हम रहन-सहन से कितने भी आधुनिक हो पर आने वाली पीढ़ी की जड़े यदि मजबूत रखना चाहते है, संस्कार और सभ्यता को बचाना है तो स्थानीय व्यवहार में, व्यापार में और बोलचाल में अपनी लोकभाषा को महत्व देना होगा । बाहरी व्यवहार में जहॉ उस बोली को समझा नहीं जा सके वहॉ हिंदी को महत्व दे। आज हिंदी पूरे भारत में पढ़ी और आसानी से समझी जा रही है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अब हिंदी का डंका बज रहा है। गुगल जैसा वैश्विक मंच हिंदी को पूरा महत्व देते हुए सारी जानकारी हिंदी में उपलब्ध करवा रहा है। 

अंग्रेजी या अन्य विदेशी भाषा में दक्षता प्राप्त करना बुरा नहीं है। यह अतिरिक्त योग्यता है। जो हर किसी में होना चाहिए लेकिन अपनी बोली अपनी भाषा और अपनी राष्ट्रभाषा को छोड़ कर नहीं। हिंदी को और स्थानीय भाषाओं को यदि सम्मान दिलाना है तो पाठ्य पुस्तक से निर्मित मानव से कुछ नहीं होगा। इसके लिए हमें अपने परिवेश अपनी विचारधारा और अपने कर्तव्यों में हिंदी का उपयोग करना होगा।

वे तमाम लोग जो हिंदी के लिए आंदोलन कर रहे हैं उनको सबसे पहले अपने लिए नियम बनाना होंगे कि हम बच्चों से पढ़ाई के समय को छोड़कर हिंदी का अधिकतम उपयोग करेंगे। हमारा जोर हिंदी के शब्दों और अभिव्यक्तियों के प्रयोग पर रहेगा। हमारे बच्चे का दिमाग हिंदी में भी अन्य भाषाओं की अपेक्षा समान रूप से चलेगा, उनकी हिंदी कामचलाऊ या हंग्लिश ना होकर स्तरीय होगी। केवल 14 सितम्बर को ही नहीं हर दिन को हिंदी दिवस बनाना होगा। तभी हिंदी को राष्ट्रभाषा का सम्मान प्राप्त होगा।

-संदीप सृजन

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क्षमापना पर्व विशेष - आत्म कल्याण की राह क्षमापना



जैन धर्म मे पर्युषण महापर्व को सभी पर्वों का राजा यानि पर्वाधिराज कहा जाता है। लौकिक जगत के जितने पर्व आते है, उनका मुख्य उद्देश्य भौतिक समृध्दि के लिए साधना करना होता है। लेकिन पर्युषण पर्व के दौरान लौकिक और भौतिक समृध्दि के लिए कोई साधना नहीं की जाती वरन आत्मकल्याण के लिए साधना की जाती है और आठ दिन की पर्वाराधना के सार तत्व के रुप में जगत के समस्त जीवों से क्षमापना की जाती है।

प्रश्न यह उठता है क्षमापना क्यों? मनीषियों ने कहा है कि मनुष्य की उन्नति और पतन का कारण मनुष्य स्वयं होता है। मनुष्य के अपने विचार ही उसे उन्नति की ओर ले जाते है और विचार ही पतन की मार्ग निर्मित करते है। यदि विचारों पर काबू किया जाए तो पतन का मार्ग रुक सकता है। हमेशा से मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी रही है दुसरों के प्रति द्वेश की भावना। जड़ वस्तु (धन-दौलत) के प्रति राग मनुष्य की कमजोरी नहीं है। जड़ के प्रति जो राग होता है उसे छोड़ना आसान होता है। पर दुसरे के प्रति द्वेश का त्याग करना आसान नहीं होता है। आज मनुष्य करोड़ों का दान देने को तैयार है। मगर किसी भी व्यक्ति के प्रति अंतर में द्वेश का भाव है, जो दुर्भावना मन में है, या जो आक्रोश हृदय में है उसे आसानी से नहीं छोड़ता है। द्वेश भावना एक आत्म शल्य है।

शास्त्रों में कहा गया है कि जिस व्यक्ति के हृदय में शल्य होता है। वह हृदय कभी परमात्म तत्व को प्राप्त नहीं कर सकता है। परमात्म तत्व सदैव निर्मल हृदय में ही वास करता है। शल्य का अर्थ है कांटा । जिस तरह किसी व्यक्ति के पैर में कांटा लगा हो तो वह दौड़ नहीं सकता है उसी तरह किसी के प्रति अन्तर में द्वेश का भाव है तो कभी भी आत्म उन्नती का मार्ग नहीं खुल सकता है। क्षमा भाव ही वह तत्व है जो अंतर के शल्य को मिटा सकता है और आत्म उन्नती का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।

जैन दर्शन में कहा गया है कि जीवन में यदि जड़ पदार्थों का त्याग न भी करे तो मोक्ष का मार्ग खुल सकता है। मगर मन में किसी के प्रति द्वेश का भाव है तो मनुष्य की मुक्ति संभव नहीं है। किसी के प्रति द्वेश का भाव हमारे मन में आता है तो हमारी प्रसन्नता खो जाती है। मन विचलित हो जाता है। हम गड़बड़ा जाते है। उदासी छाने लगती है। जो चीज मन को उदास करे उसे मस्तिष्क में क्यों जगह दी जाए।

किसी ने कुछ कह दिया हो या कर दिया हो तो उसे बार-बार स्मरण करके मन की शांति भंग नहीं करना चाहिए। अपने मन के अनुकुल कार्य या व्यवहार न हो उस स्थिती में किसी के भी प्रति मन में आए नकारात्मक विचारों को तत्काल भूलने का प्रयास करना। यदि भूलने का प्रयास निश्फल हो रहा है, और क्रोध बढ़ भी रहा है तो कोई विपरित कार्य उस व्यक्ति के प्रति करने या उसे कुछ बोलने से पहले मन को शांत करने की पूरी कोशिश की जानी चाहिए। ताकि आवेश में कहीं कुछ ऐसा न हो जाए की जीवन भर वह कार्य हमें पछतावा लगे। दिल और दिमाग की हार्डडिस्क से हमेशा नफरत पैदा करने वाले विचारों को हटाने का प्रयास जारी रखना चाहिए।

पहली स्थिती में किसी के भी कार्य या व्यवहार का सबसे पहला असर मन पर होता है। जीवन में जब किसी के प्रति द्वेश का भाव उत्पन्न हो तो उसे वहीं रोक लेना जैसे आईने पर लगी धूल को पोछते ही आईना साफ हो जाता है। उसी तरह मन पर लगी विचारों की धूल को स्व प्रेरणा से पोछ कर उदारता का प्रयोग करना चाहिए। अबोला त्याग कर देना चाहिए।

यदि आत्ममुग्धता के वशीभूत स्व प्रेरणा से हम उदारता नहीं दिखा पाए और मतभेद हो भी गये हो तो किसी के कहने पर अपने मान-अपमान को त्यागकर क्षमायाचना कर लेना चाहिए। लेकिन कई बार ऐसा होता है कि हम जिससे क्षमायाचना कर रहे है वह हमें क्षमा न भी करे। तो भी याचक भाव रखकर क्षमायाचना करना चाहिए। याद रखें जो क्षमा मांग रहा है वह अपना शल्य खत्म कर रहा है। उसके खाते से वैर भाव खत्म हो रहा है। जो मांगने पर भी क्षमा नहीं कर रहा उसके खाते में बैर भाव यथावत रहेगा। जो याचक है वह आत्मोत्थान की ओर बढ़ जाएगा।

क्षमा मांगना और देना दोनों स्थिती आत्म के कल्याण की कारक है इसीलिए जैन शास्त्रों में परस्पर क्षमापना शब्द का प्रयोग किया गया है। और इस दौरान परस्पर कहना चाहिए मिच्छामी दुक्कड़म। अर्थात- मैने जो भी आपके प्रति बुरा किया गया है वो फल रहित हो। यह शब्द क्षमायाचक और क्षमाप्रदाता दोनों के आत्मोत्थान का मार्ग प्रशस्त करता है। क्षमा मांगने वाला नीचा नहीं हो जाता और न ही क्षमा करने वाला ऊंचा। क्षमापना दोनों को समान राह पर ले आती है। दोनों के हृदय के शल्य दूर हो कर दोनों के हृदय निर्मल हो जाते है।

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सात दशक की स्वतंत्रता और चंदु भैया की शोध डायरी (व्यंग्य)

हमारे चंदू भैया सामाजिक और साहित्यिक जीव है और उनका जन्म भी हमारी तरह स्वतंत्र भारत में हुआ इसलिए उनने भी बचपन में पुस्तकों में पढ़ा और अध्यापकों से सुन रखा था कि भारत स्वतंत्र है। तभी से उनको ये आभास होने लगा था कि भारत में रहकर वो जो मर्जी आए, कुछ भी कर सकते है। वे बचपन से ही स्वतंत्रता का उपयोग करते भी थे पर उनको कई बार लगता था कि भारत के लोग कुछ ज्यादा ही स्वतंत्र हो गये है। इस ज्यादा स्वतंत्रता के बारे में उन्होंने हिंदी का शब्द कोश तलाशा तो उनको शब्द मिला स्वच्छंदता। इसी तलाश के चलते यह स्वतंत्रता कब और कैसे स्वच्छंदता में परिवर्तित हो गयी ये न कभी उनने पढ़ा और न ही सुना पर महसूस कर रहे थे।

स्वतंत्रता का स्वच्छंदता में बदलना एक गहन शोध का विषय है। पर भारत में शोध बिना सरकारी सहायता के संभव नहीं है और कोई भी सरकार स्वतंत्रता के स्वच्छंदता में बदलने के कारण पर शोध करवाने में कोई रुचि नही रखती और ना कोई भविष्य में इस तरह की संभावनाएं दिखाई देती है। कारण कोई भी विश्वविद्यालय इस तरह के शोध के लिए अनुमति देने को तैयार नहीं है, और न ही कोई प्राध्यापक इस विषय पर मार्गदर्शक बनने को राजी है। क्योंकि इस विषय में जानते समझते सब लोग है। पर कोई भी व्यक्ति लिखित में इसको प्रुफ करने की जोखिम नहीं उठा सकता। जो जोखिम उठाएगा सबसे पहले उसी की कलाई खुलेगी ये भी तय है।

इसलिए भारत में स्वतंत्रता है या स्वच्छंदता यह समझने के लिए चंदू भैया ने एक दिन अपने विवेक का उपयोग करके अपने आसपास नजरें दौड़ाई और प्राइवेट तरीके से शोध करने का मन बनाया। जिसे चंदू भैया ने अपनी डायरी में नोट भी किया। आइए देखते है सात दशक की स्वतंत्रता को दौरान चंदू भैया की शोध डायरी के सात स्वतंत्र पृष्ठ जहॉ हम सब परतंत्र है।

 

पहला पेज- सुबह नज़रें अपने घर बाहर की सड़क पर गई जहॉ लोग आम दिनों की तरह ही आ-जा रहे थे कि अचानक स्वतंत्र भारत में जन्में कुछ स्वतंत्र युवा मोटर सायकिलों पर लदे एक बाद एक दनादन नारेबाजी करते हुए गुजरे और मोटर सायकिलों के बिना बंसी के सायलेंसरों की गर्जना से सारा मोहल्ला उन युवाओं को देखने के लिए घर के खिड़की दरवाजों पर खड़ा हो गया। कोई बात मुझे समझ आती इससे पहले ही एक पुतले को चौराहे पर खड़ा कर उन युवाओ ने मुर्दाबाद के नारों के बीच आग लगा दी। वे युवा स्वतंत्र थे और स्वछंद आचरण कर प्रसन्न थे। पास खड़े पुलिस के जवान स्वतंत्र आचरण को स्वच्छंद आचरण में परिवर्तित होता देख कर भी मूक बने रहे। यदि वे स्वतंत्रता और स्वच्छंदता का फर्क उन युवाओं को समझाते तो हो सकता था कि उनकी स्वतंत्रता बाधित हो जाती।

 

दुसरा पेज- आज जिला अधिकारी के आफिस में जाना हुआ। आफिस खुलने का समय बाहर दीवार पर लिखा था प्रातः 10:30 बजे । मै बारह बजे गया फिर भी न साहब थे और न ही उनके बाबु । चपरासी ने बताया साहब तो शाम को चार बजे तक आते है और साड़े चार बजे चले जाते है। हॉ बाबु लंच के बाद तीन बजे आएंगे और पांच बजे तक रुकेंगे। तब तक आपको रुकना होगा। अब मैं बाहर अर्दली में बैठा सोच रहा था कि ये स्वतंत्र भारत के कर्मचारी है या स्वच्छंद भारत के। असली स्वतंत्र तो ये लोग है जो अपनी मर्जी से आफिस आते है और अपनी मर्जी से जाते है। जनता तो इनके एक दस्तखत के लिए सारा दिन अपनी स्वतंत्रता का त्याग कर देती है।

 

तीसरा पेज- आज कुछ रुपयों की जरुरत पड़ी तो बैंक जाना हुआ। सरकारी अफसरों की स्वतंत्रता के बाद बैंक की स्वतंत्रता का आलम बड़ा निराला है। बैंक में कैश काउंटर की अधिपति याने कैशियर देवी की दादागिरी देख कर तो लगा कि इसे कहते है। स्वतंत्रता और कुर्सी का नशा। हैड कैशियर और बैंक के शीर्ष अधिकारी उस देवी के स्वच्छंद आचरण के आगे नत मस्तक और पर परतंत्र दिखे। प्रबंधक के चार मौखिक और एक बार लिखित आदेश को भी वो कचरापेटी के हवाले करने का साहस रखती है। जिसे देख कर लगा की स्वतंत्र भारत में इन कम नम्बरों से पास बैसाखी के सहारे कुर्सी पर बैठे कर्मचारियों के सामने योग्यता घुटने टेकती है।

 

चौथा पेज- स्वतंत्र भारत जनता अपनी सरकार खुद चुन सकती है। मैने भी युवा होते ही सरकार चुनना शुरू कर दिया था अट्ठारह पुरे होते ही पहली बार मतदान किया और अपनी सरकार भी चुनी मैने जिसको चुना वह मंत्री बन गया। जब तक वो चुनाव में उम्मीदवार था। वो और मै दोनों स्वतंत्र थे पर जैसे ही वो चुनाव जीता और मंत्री बना स्वच्छंद हो कर विधान परिषद में उड़ान भर रहा है। और मै अपने मोहल्ले में खुदी हुई सड़को पर चलते हुए खुद को डरा हुआ और परतंत्र महसूस कर रहा हूँ। मै जानता हूँ कि स्वतंत्रता के अधिकार के तहत चुने गए मंत्री जी ने अपनी पूरी स्वतंत्रता का उपयोग किया और अपने समर्थकों या मित्र मंडली वालों के लिए स्वतंत्रता के द्वार खोल दिए तो मेरी हालत भी मोहल्ले की सड़क की तरह हो सकती है। मै अगले चुनाव की प्रतिक्षा कर रहा हूं ताकि फिर से एक बार स्वतंत्र होने का अवसर मुझे मिले।

 

पांचवा पेज- टीचर से लेकर स्टूडेंट और पब्लिक स्कूल से लेकर कोचिंग इंस्टिट्यूट तक स्वतंत्रता का गजब का खेल है। टीचर क्लॉस में न हो तो बच्चे स्वतंत्रता ही नही स्वच्छंदता का आनंद लेते है। प्रिंसीपल न हो तो टीचर स्वच्छंद होते है। पब्लिक स्कूल तो वैसे भी स्वच्छंदता के अखाड़े से कम नहीं है। जहॉ सरकार के लाखों खर्च होते है और टॉप करते है इंग्लिश मिडियम के कोचिंग इंस्टिट्यूट में पढ़ने वाले बच्चें।सरकार का पैसा केवल गणना के लिए मास्टरों को दिया जाता है। स्कूल में रहो तो बच्चो को गिन लो नहीं तो जनगणना, पशुगणना, बीमारगणना, वोटरलिस्ट बनाना आदि स्वतंत्र कार्य करो। जो कि वे स्वच्छंद होकर करते है। और पढ़ाई में सफलता का झंडा कोचिंग इंस्टिट्यूट वाले बड़े-बड़े विज्ञापन देकर लहराते है। यही स्वतंत्रता है वे घोषित करते है हम स्वच्छंद है।

 

छठा पेज- अस्पतालों के मामले में सरकारी हो या प्राईवेट दोनों की स्वतंत्रता से जन जन का पाला पड़ा होता है। सरकारी अस्पताल में तो वार्डबॉय से लेकर सर्जन तक सब स्वतंत्र होते है। और वहॉ आए मरीज की आत्मा को शरीर की कैद से मुक्त करवाने के लिए अपना असहयोग देकर पुरा प्रयास करते है। प्राईवेट अस्पतालों में स्वतंत्रता का आलम गज़ब का होता है। यहॉ के डाक्टर मरीज की आत्मा को मरने के बाद भी शरीर से स्वतंत्र नहीं होने देते। बल्कि मरीज के परिजनों को आर्थिक रुप से स्वतंत्र करने का प्रयास जरुर करते है। दोनो जगह डॉक्टर स्वतंत्र होते है। और स्वच्छंदता से अपना कर्म करते है।

 

सातवां पेज- बोलने की स्वतंत्रता सबको मिली है। जिसे जो समझ पड़े वो सार्वजनिक रुप से बोलने के लिए स्वतंत्र याने स्वच्छंद है। कोई भी खुल कर किसी को पप्पु कह सकता है। फेंकु कह सकता है। सामने न कह सकने वाली बात इशारों की भाषा में कह सकते है। पर अपनी पत्नी के सामने न मैं बोल पाता हूं और इशारों की भाषा में बच्चों को संबोधित करते हुए कुछ कह पाता हूँ। स्वच्छंदता तो दूर सही से स्वतंत्रता का भी उपयोग नहीं कर पाता हूँ। कईं बार लगता है चाहे भारत स्वतंत्र है पर पत्नी के आगे संतरी से लेकर मंत्री । चपरासी से लेकर अधिकारी तक सब परतंत्र है। और पत्नी स्वच्छंद है।

 

नेता से लेकर अभिनेता तक और शिखर से लेकर तलहटी तक जहां भी नजर दौड़ आएंगे आप हर किसी को स्वच्छंद पाएंगे यह तो बानगी है पर स्वच्छंदता अलग-अलग स्तर पर अलग-अलग तरीके से दिखाई देगी स्वतंत्रता के नाम यहां हर कोई स्वच्छंद है।

-संदीप सृजन

संपादक-शाश्वत सृजन

ए-99 वी.डी. मार्केट, उज्जैन (म.प्र.)

मो. 9406649733

मेल- sandipsrijan.ujjain@gmail.com

अख़बार रद्दी कर गया विकास (व्यंग्य)


सुबह का अखबार शाम को रद्दी हो जाता है यह तय है पर इस बार अखबार सुबह-सुबह ही रद्दी हो गया। ये चंदू भैया के जीवन में किसी हादसे से कम नहीं है। पूरे चार रुपये का अखबार चंदू भैया को लेना पड़ रहा है। वो भी मजबूरी में। क्योंकि बचपन से ही चंदु भैया को तंबाखू और बीड़ी मांगने की आदत रही। उनने सदा से ही मांग कर ही अखबार पढ़ा है। पर कोरोना के कारण लोग कोई भी मांगी हुई चीज दे नहीं रहे है। मांगने जाए तो भी पड़ोसी मुंह खोलकर इंकार कर देते है और कहते है कि कोरोना के कारण वे नहीं दे पाएंगे। माफ करे।

पहले तो पड़ोसियों का यह व्यवहार चंदू भैया को थोड़ा अटपटा लगा पर आखिर में मन मारकर उन्होंने एक अखबार की बंदी लगवा ही ली। पर अखबार वो मंगवाते जिसमें पेज ज्यादा हो और दाम कम हो। पर मुए लॉकडाउन के कारण सारे अखबारों ने दाम तो वही रखे पर पेज कम दिए। जिसके कारण रद्दी कम बैठ रही है और चंदू भैया अखबार से होने वाली आवक जावक का हिसाब लगाते हुए वैसे ही तनाव में रहते है। उन्हें पता है कि जितने रुपये वे हॉकर को देंगे उसका पच्चीस प्रतिशत ही कबाड़ी उनको देगा। याने पचहत्तर प्रतिशत नुकसान तय है। पर करे क्या आदत जो पड़ गई है।

आज तो चंदु भैया का तनाव और ज्यादा बढ़ गया। सवेरे-सवेरे अखबार में विकास कथा पढ़ रहे थे कि इतने में टीवी पर समाचार आ गया कि विकास की कथा में एक और नया पृष्ठ जुड़ गया है। विकास हमेशा आगे की ओर दौड़ता था। और रोज नया इतिहास लिखता था। कहते है जो दौड़ता है उसके पीछे भी कुछ लोग दौड़ते है, टांग खीचने के लिए। पर इस पृष्ठ में दौड़ने वाले विकास की कहानी में दौड़ के साथ ठहराव वाला भाग बड़ा रोचक और रोमांचक था। टांग खींचने वाली बात तो कहीं थी ही नहीं, बल्कि विकास खुद अपनी टांग लम्बी किए खड़ा हो गया। यही बात उसकी स्टोरी में और सस्पेंस ला रही थी। और चंदू भैया का रोमांच बढ़ता जा रहा था। विकास गया तो गया अखबार पढ़ने का सब मजा किरकिरा कर गया।

महाकाल शरण में आया था विकास पर लगता है महाकाल पर भरोसा नहीं था वरना वो दौड़ता नहीं तो जीवन छोड़ता नहीं और अपनी कहानी में अंतिम पृष्ठ जोड़ता नहीं। पर विकास न गिरता तो कईं और नीचे गिर जाते। विकास जिस रफ्तार से आगे बढ़ा था वो किस्सा किसी हिट फिल्म से कम नहीं था। बहुत ही रस आ रहा था विकास की गाथा को पढ़ने में, विकास की गाथा में विनाश ही विनाश का विकास था। सफेद, लाल, भगवा, खाकी सारे रंग विकास के रंग में रंगे थे। विकास का होना इन सब रंगों को बदरंग कर सकता था। बस यहीं एक भय विकास के विनाश का कारण बन गया। विकास गया तो गया पर चंदू भैया का शुक्रवार का अखबार रद्दी कर गया। और शनिवार को ताजा समाचार की जगह सत्यकथा पढ़ने को मजबूर कर गया।

-संदीप सृजन

संपादक-शाश्वत सृजन

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