जनचेतना जगाती कृति- 'नदिया का संगीत'




*कृति- नदिया का संगीत
*लेखक- टीकम चन्दर ढोडरिया
*प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, जयपुर
*पृष्ठ- 80
*मूल्य-100/-
भारतीय छंद शास्त्र में दोहा सर्वाधिक प्रचलित छंद है, भक्ति काल से वर्तमान काल तक दोहा छंद हर कवि को किसी न किसी रूप रास आया है। 13-11 मात्राओं के दो पदों में कवियों ने नवरसों को समाहित किया हैं। किसी भी विषय पर दोहा छंद में आसानी से और त्वरित कोई भी बात कही जा सकती है।हाल ही में कविवर टीकम चंदर ढोडरियाजी का दोहा संग्रह नदिया का संगीत बोधि प्रकाशन जयपुर से प्रकाशित हुआ है। जैसा कि नाम से ही पता चलता है कि यह संग्रह नदी पर केंद्रित है। साथ ही 31 अन्य विषयों पर भी इस कृति में दोहे समाहित है। लेकिन सबसे ज्यादा 116 दोहे केवल नदी पर केंद्रित है। ढोडरिया जी वर्तमान में राजस्थान में निवासरत है, लेकिन कहीं न कहीं उज्जैन शहर जो कि मध्य प्रदेश की धार्मिक राजधानी है उससे उनका बेहद जुड़ाव रहा है यह बात इस संग्रह के प्रारंभ में ही देखने को मिलती है। इस संग्रह की शुरुआत ही वे उज्जयिनी की स्तुति शीर्षक से लिखे सात दोहों से करते हैं, और फिर अपनी कृति के शीर्षक विषय नदी पर आते हैं। इस कृति में नदी को विभिन्न स्वरूपों से अलंकृत किया गया है जिसकी बानगी अलग-अलग दोहों में पढ़ने को मिलती है। वे लिखते हैं-

सुचिता की मूरत नदी, गरिमा की पहचान।
पहने हैं निज- देह पर, लहरों का परिधान।।
नदिया पर बूंदे गिरीं, कल जब मेरे गाँव।
मैं समझा तुम आ गयीं, पायल बांधे पाँव।।
वही आज की नदियों की बदतर स्थिति पर भी लिखने से नहीं चूकते हैं और नदियों के दर्द को इन शब्दों में कहते हैं-
अमरित-सम था जल कभी, आती आज सड़ांध।
क्या से अब क्या कर दिया, है मानव स्वार्थांध।।
कितना मैला हो गया, आज नदी का नीर।
खदबद अब करने लगी, देखो उसकी पीर।।

दोहा छंद की विशेषता है कि इस छंद में बात सहज और सरल शब्दों में कही जा सकती है। जैसा नदी और नारी पर समानता बताते हुए दोहे में ढोडरियाजी ने कही है।
नदिया नारी का रहा, सदा एक व्यवहार।
औरों के सुख हेतु वह, सहती कष्ट अपार।।
नदी की बात जब कभी की जाती है तो जंगल की बात होना स्वाभाविक है, अगले विषय के रूप में ढोडरियाजी वनों की पीड़ा को अपने शब्द देते हैं-
ज्यों-ज्यों सभ्य हुआ सखे, बढ़ी मनुज की भूख।
गुमसुम से रहने लगे, अब जंगल के रूख।।
शहरी सभ्यता के चलते वनों का जो हाल हमने किया है उस पर भी ढोडरियाजी लिखते हैं-
सिसक रही हैं डालियाँ, लगे काँपने पात।
जंगल में जब से घुसी, शहरी आदम जात।।

वर्तमान में सबसे ज्यादा कविता जिस विषय पर लिखी जा रही है, वह विषय है बेटी, बेटी के प्रति वे अपनी अभिव्यक्ति को शब्दों का जामा पहनाते हो कहते हैं-
गणित दुई की एक-सी, पीहर या ससुराल।
बिटिया हल करती रही, दोनों जगह सवाल।।
इस विषय पर 15 दोहे लिखे हैं, जो पाठकों की आँखों में पानी ला देंगे। गांव शीर्षक से कृति में 13 दोहे हैं। जिनमें गांव के शहर बनने की पीड़ा और पुरातन गाँव का स्वरूप है। इन दोहों मे कुछ ऐसे शब्द पढ़ने को मिलते हैं जो आज के शहरी वातावरण में लुप्तप्राय हो चुके हैं। शहरी समाज या कहे कि शहरी सभ्यता का इन शब्दों से दूर-दूर तक का वास्ता नहीं है। ढोडरियाजी पुनः गाँव ले जाना चाहते पाठकों को वे लिखते है-
परहैण्डी, पनघट सजे, जगे अलगनी भाग।
हम से बतिया ने लगे, फिर चूल्हे की आग।।
काँकड़ से पहुंची नजर, ज्यों ही मेरे गाँव।
अगवानी को आ गई, यादे नंगे पाँव।।

नदिया का संगीत में विभिन्न ऋतुओं, त्यौहारों,जीवन के विभिन्न प्रसंगों पर केन्द्रीत दोहे है। साथ ही रति भाव से ओतप्रोत श्रंगार रस में भींगे दोहे भी बहुत शालिन शब्दों में ढोडरियाजी ने कहे है। दोहों की बात हो और कबीर का सुफियाना दार्शनिक अंदाज न दिखे तो बात अधुरी लगती है। जीवन का आधार, होगा वहीं हिसाब,कैसे खोजूँ राम,यक्ष प्रश्न जैसे शीर्षक के साथ दार्शनिक दोहे इस कृति को एक चिंतनशील कृति निरुपित करते है। कृति के सारे दोहे कुछ न कुछ कहते है। हर विषय रूचिकर है। सामयिक है। हॉ कुछ जगह शब्दों का दोहराव जरूर पाठकों पसंद न भी आए पर रचनाकार की प्रतिभा को दर्शाता है। जिनमें शब्द वहीं है पर बात हर जगह अलग है। बोधि प्रकाशन ने कृति को आकर्षक रूप में पाठकों तक पहुंचाया है। यह कृति विषय के अनुसार जनचेतना जगाती कृति है। पाठकों को अपने भूतकाल में झांकने को विवश करती है। हम कैसे थे, कैसे हो गये ये सोचने पर मजबूर करेगी। एक चिंतनशील कृति समाज में लाने के लिए ढोडरियाजी को साधुवाद... बधाई।

 चर्चाकार 
-संदीप सृजन
संपादक- शाश्वत सृजन
ए-99 वी.डी. मार्केट, उज्जैन 456006
मो. 09406649733


सामाजिक मूल्यों को पोषित करती कृति 'सपनों के सच होने तक'




एक कविता जितनी देर में पढ़ी या सुनी जाती है उससे हजार गुना अधिक समय में वह कागज पर अवतरीत होती है, और उससे भी हजार गुना समय उस विषय को चिंतन-मनन करने में कवि लगाता है। कविता का जन्म जब होता है, उससे पहले रचनाकार के विचारों में एक लंबा संघर्ष चल रहा होता है। तभी कविता यथार्थ के धरातल पर टिकती है और पाठक या श्रोता के मानस में अपना स्थान बना पाती है।
*कृति- सपनों के सच होने तक
*लेखक- राजकुमार जैन राजन
*प्रकाशक- अयन प्रकाशन, दिल्ली
*मूल्य-260/-
*समीक्षक-संदीप सृजन
लब्ध प्रतिष्ठित कलमकार और संपादक राजकुमार जैन राजन की कविताओं का दूसरा संग्रह 'सपनों के सच होने तक' शीर्षक से हाल ही में अयन प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। राजन जी नियमित सृजनधर्मी है, विचार और चिंतन और सृजन तीनों प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही वे अपना लिखा सार्वजनिक करते है। ये उनकी विशेषता है। इक्यावन कविताओं के इस संग्रह में सामाजिक सरोकार की रचनाएँ ज्यादा है। जो होना भी चाहिए। जब हम समाज को अपनी रचनाएँ सौप रहे है तो सामाजिक सरोकार प्राथमिक होना चाहिए। कपोल कल्पना मनोरंजन कर सकती है पर समाज को कुछ दे नही सकती। राजन जी हमेशा समाज को देने का भाव रखते है इसीलिए वे समाज के हर पहलू पर स्वयं को केन्द्र में रखकर लिखते है।समाज की दोहरी मानसिकता पर उनकी कविता विष बीज जोरदार प्रहार करती है वे रचना के अंतिम पदों में लिखते है- छोटा हो या बड़ा /अपराध अपराध ही होता है/ जो विष बीज बोता है/ जिसके जहर से / समाज मृत होता है / दोहरा जीवन, दोहरी संस्कृति /जीना छोड़ना होगा /तभी उद्घोष होगा /सत्यम, शिवम, सुंदरम का। राजन जी कविता प्रश्न और उत्तर में जो कहते है वो बहुत गंभीर बात है और ऐसा लगता है वे सीख दे रहे है ,वे कहते है- जिंदगी के थपेड़ों में /गुम हो हो चुके प्रश्नों को /खोज लेने से क्या होगा /जबकि बहरे हुए समय में / उत्तरों का छोर कहां है। वर्तमान में जो मूल्य हृास हो रहे है उन्हें बचाने की एक अच्छी कोशिश है। वे नये युग की वसियत रचना में लिखते है- धोखा यहॉ परम्परा/झूठा गढ़ा इतिहास ही/ अब हमारी संपदा है/ क्या मान्यताओं की / झूठी लक्ष्मण रेखा/ अब टूटेगी?/मुक्त होंगे इनकी कैद से हम/उग रहा है नया सूरज/ नया प्रकाश फैलाने को।


वेदना और संवेदना कविता का आत्मतत्व होता है, एक अच्छी रचना इन तत्वों के बिना बन ही नहीं सकती है। बाढ़, नये युग की वसीयत, मानवता का कत्ल, नई पीढ़ी जैसी रचनाएँ समाज की पीड़ा है। जो हर इंसान कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में भोग रहा है। पीड़ा प्रश्न के डंर, मैं कृष्ण बोल रहा हूँ, मानवता का पुनर्जन्म जैसी कविता पुरातन आख्यानों का नवस्वरूप है जो आज भी समाज में जिंदा है। मेरे भीतर बहती है नदी,लालिमा सूर्योदय की, पुनर्जन्म, समर्थन , चलो, फिर से जी ले जैसी रचनाएँ जीवन को नव चेतना देने में सहायक है।

वही समाज में जब बहुत ज्यादा असामाजिकता आती है और मानव अमानवीय होने लगता है तब राजन जी की कविता के बदले तेवर लिखते है ईश्वर मर गया है, ऐसा एक दीप जलाऊं, प्रश्नों की परछाईयॉ जैसे रचनाएँ जो बोध करवाती है समाज में यह गलत हो रहा है। इस कृति में कईं रचनाओं में एक संदेश दोहराया गया है वह है सत्यम, शिवम,सुंदरम । जो की संसार का सार तत्व है और स्वयं का बोध करवाता है।
राजन जी की यह कृति पूरी तरह से संवेदना से भरी हुई है। हर रचना में उनकी संवेदनशीलता दिखाई दे रही है। राजन जी की यह कृति सामाजिक मूल्यों को पोषित करती है। सपनों के सच होने तक के लिए राजन जी को बधाई ...।
-संदीप सृजन
संपादक- शाश्वत सृजन
ए-99 वी.डी. मार्केट, उज्जैन 456006
मो. 09406649733