समाज में मनुष्यता के प्रतिस्थापक भगवान पार्श्वनाथ



सनातन धर्म की पावन गंगोत्री से निकले विभिन्न धर्मों में जैन धर्म भारत का सर्वाधिक प्राचीनतम धर्म है। चौबीस तीर्थकंरों की समृद्ध जनकल्याण की परम्परा, जो वर्तमान अवसर्पिणी काल में ऋषभदेव से लेकर महावीर तक पहुंची, उसमें हर तीर्थंकर ने अपने समय में जिन धर्म की परम्परा को और आत्मकल्याण के मार्ग को समृद्ध किया है तथा संसार को मुक्ति का मार्ग दिखाया है।
काल के प्रवाह में ऐसा होता आया है कि एक महापुरुष के निर्वाण के बाद उसका प्रभाव तब तक ही विशेष रूप से जन सामान्य में रहता है जब तक की उसके समान कोई अन्य महापुरुष धरती पर अवतरित न हो। लेकिन कुछ महापुरुष इसका अपवाद होते है। जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकरों में तेवीसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ के बाद भगवान महावीर हुए लेकिन भगवान पार्श्वनाथ के प्रभाव में कोई कमी आज तक नहीं आई है। जैन मान्यताओं के अनुसार वर्तमान में भगवान महावीर का शासन चल रहा है लेकिन सर्वाधिक जैन प्रतिमाएँ आज भी केवल भगवान पार्श्वनाथ की ही है। जैन मंत्र साधनाओं में भी सर्वाधिक महत्व पार्श्वनाथ के नाम को ही दिया जाता है।
भगवान पार्श्वनाथ का जन्म भगवान महावीर के जन्म से 350 वर्ष पहले हुआ। सौ वर्ष की आयु उनकी रही तदानुसार लगभग तीन हजार वर्ष पहले वाराणसी के महाराजा अश्वसेन के यहॉ माता वामा देवी की कुक्षी से पोष कृष्ण दशमी को हुआ। राजसी वैभव के बावजूद आत्मा में असीम करुणा का भाव जो सांसारिक जीवन में उनको लोकप्रिय बना देता है। वे उस दौर के तमाम आडम्बरों के बीच एक कमल पुष्प थे। धर्म और समाज में फैली हिंसा और कुरीतियों के बीच एक धर्म पुरोधा थे। जो मनुष्य समाज में मनुष्यता के गुण करुणा, दया, अहिंसा के जीवन की प्रतिस्थापना करने को आए थे।
जैन धर्म ग्रंथो में एक प्रसंग आता है- जब भगवान पार्श्वनाथ मात्र उम्र सोलह वर्ष थे तब वाराणसी नगरी में एक तापस आया जो नगर के मध्य अग्नी तप कर रहा था। और सारा नगर उस तापस के इस हठ योग से प्रभावित हो कर उसके दर्शन के लिए जा रहा था। ऐसे में लोक व्यवहार अनुसार पार्श्वकुमार भी वहॉ पहुंचे। तभी उन्होने अपने ज्ञान से देखा की तापस ने जो लकड़ी अपने सामने जला रखी है उसमें नाग नागिन का जोड़ा है, और वो जल रहा है। पार्श्वकुमार ने तापस से कहा कि- योगी आपके इस हठ योग में जीवों की हिंसा हो रही है। इस पर तापस क्रोधित हो गया और अशिष्ठ भाषा का प्रयोग पार्श्वकुमार के प्रति किया। तभी पार्श्वकुमार ने अपने कर्मचारी को आदेश देते हुए काष्ठ के उस टुकड़े को आग से निकालने कर उसे चीरने को कहा, जैसे ही कर्मचारी ने लकड़ी को चीरा उसमें से जलता हुआ नाग नागिन का जोड़ा निकला जो मरणासन स्थिती में पहुँच चुका था । पार्श्वकुमार ने जलते नाग नागिन के प्रति अपनी करुणा बरसाते हुए उनको नमस्कार महामंत्र सुनाया और बोध दिया कि वैर भाव को त्याग करे और समाधी मरण का वरण करे। पार्श्वकुमार की वाणी उस समय उस सर्प युगल के लिए किसी अमृत से कम नहीं थी। क्योंकि कहा जाता है अंत मति सो गति। पार्श्वकुमार के वचनों से उनके मन से वैर भाव खत्म हुआ और वे समाधी मरण को प्राप्त कर देव लोक में धरणेन्द्र और पद्मावती नाम से इन्द्र और इन्द्राणी बने। जो की भगवान पार्श्वनाथ के जीवन काल में हर समय उनके साथ रहे और माना जाता है कि आज भी भगवान पार्श्वनाथ का स्मरण करने वाले के साथ रहते है।
भगवान पार्श्वनाथ करुणावतार तो थे ही वे कर्मावतार भी थे उन्होने अपने सत्तर साल के दीक्षा पर्याय में कभी किसी से सहायता की याचना नहीं की अपने तपोबल के माध्यम से केवल ज्ञान को प्राप्त किया। और मोक्ष को गये। भगवान पार्श्वनाथ कर्मकांड और आडम्बर को धर्म नहीं मानते थे वे जीवंत धर्म को ही धर्म मानने और उसकी प्रतिस्थापना करने के लिए धरा पर आए थे। उन्होंने करुणा, दया, परोपकार और जगत कल्याण के कार्यों को धर्म बताया और उसी तरफ जगत के जीवों के ले जाने के लिए उपदेश दिया। भगवान पार्श्वनाथ का जन्मकल्याणक मनाते हुए हमें भी उनके जीवन से प्रेरणा लेते हुए उनके बताए मार्ग पर चलने का संकल्प लेना चाहिए।
-संदीप सृजन
संपादक-शाश्वत सृजन
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राजनीति में बीज गणित का सवाल -महाराष्ट्र (व्यंग्य)




राजनीति करने वाली ताकतें सच में बेहद ताकतवर होती हैं । हम सोच भी नहीं सकते उससे भी ज्यादा ताकतवर होती हैं। सिर्फ ताकतवर ही नहीं होती है, देश को जोड़ने, तोड़ने के साथ सरकारों को बनाने, बिगाड़ने और दिग्भ्रमित करने का इनमें अप्रतिम कौशल होता है। सरकार बनाना कोई मजाक या बच्चों का खेल नहीं है। आपकी और हमारी सरकार तो घर भी ठीक से नहीं चला सकती है तो प्रदेश और देश की कल्पना करना दिन तारे ढूंढने जैसा है। अगर आपको खुदकुशी भी करनी है तो उसके लिए एक लंबी तैयारी करनी पड़ेगी। खुद को दिमागी तौर पर तैयार करने के बाद कुछ जरुरती सामान का जुगाड़ भी करना पड़ेगा। सोचिए जब खुद की जान लेना हो तो इतना सोचना पड़ता है तो रात भर में सरकार बनाना कितना मुश्किल होगा। बहुत ही जोखिम भरा काम है सरकार बनाना।
किसी के राय मशवरों पर एक रात में पानी फेर देना आपके और हमारे बस की बात नहीं है। आप और हम ठहरे सामान्य आदमी, पारिवारिक आदमी, कामकाजी आदमी और भारतीय नैतिक मूल्यों की दुहाई दे कर जीवन को गधे की तरह ढोने वाले आदमी, जो केवल मतदान कर अपने आप को इस लोकतंत्र का राजा मान लेते है। जबकि सच ये है कि सरकार का ढ़ाचा हम बना सकते है पर उपर का रंग रोगन और इंटीरियर डेकोरेशन हमारे हाथ में बिलकुल नहीं होता है क्योकि हममें राजनीति की समझ ही नहीं है।
आज देश में कहीं भी विधानसभा चुनाव हो निन्यानवें टका सरकारें मोठा भाई की बन रही है। एक टका कहीं दूसरे ने बना भी ली तो उनको रात को सपने में मोठा भाई मिटिंग करते दिखते है । और ये ही डर बना रहता है की सुबह सरकार न बदल जाए। महाराष्ट्र में सरकार बनाने की जिद पर अड़े लोग अड़े के अड़े ही रह गये और मोठा भाई ने पिछवाड़े से बिना बारात के सत्ता सुंदरी और फडणवीस का लग्न करवा दिया और तो और जिसने पीछे से निकलने में मदद करने वाले छोटे पंवार को भी छोटी बेन दिलवा दी। दरवाजे पर अड़े और बातचीत कर रणनीति बनाने वालों को कानों-कान खबर नहीं होने दी कि लग्न हो गये और बारात घर आ गई। मोड़ बांधने की जिद अड़े छोटे ठाकरे को कुंवारा ही रहना पड़ा। और बापदादा की इज्जत की धज्जियां उड़ी वो अलग। 
लोकसत्ता की तुलना नगरवधु से की जाती रही है। और नगरवधु के प्रेम में अक्सर इज्जत का फालूदा बनता ही बनता है। इसका इतिहास गवाह है। फडणवीस ने शुरु से मोठा भाई की बात मानी और बिना तर्क सत्ता सुंदरी का त्याग कर दिया उसी का परिणाम है कि सत्ता सुंदरी को कोई और भोगे इसका रास्ता ही बंद हो गया और छोटे पंवार की दुखती रग पर हाथ रखा और छोटी से जुगाड़ कर देने की जुबान करके फिर से फडणवीस को सत्ता सूंदरी ससम्मान दिला दी।
ये सब सामान्य राजनीति के गणित नहीं है जिनको अंक गणित की तरह आप और हम समझ ले, ये सब काम उस बीज गणित की तरह है जिसका साईन, कॉस, थीटा और एक्स के मान को पढ़-पढ़ कर दिन रात हमने सिर खपाया पर परिक्षा के समय कुछ भी याद नहीं आया। सारे रटे हुए सवाल बेकार गये और नये सवाल आ गये। राजनीति के धंधे में दिन-रात जोड़, घटाव, गुणा, भाग लगा लो पर परिक्षा के समय केवल बीज गणित के सूत्र ही काम में आते है।जिनमे कई रहस्य छुपे होते है।
अंक गणित की तरह आप और हम केवल कांदा, टमाटर, पेट्रोल, डिजल और जातिवाद आदी सामने दिखने वाले मुद्दो को ही राजनीति समझते है लेकिन असल में राजनीति बीज गणित के एक्स के मान की तरह होती है। जैसे कि मोठा भाई ने पूर्ण संख्या फडणवीस में एक्स के रुप में छोटे पंवार का जोड़ किया तो संख्या वह बन गई जिसकी कल्पना वे सब संख्याएँ नहीं कर सकी जो महाराष्ट्र की सत्ता सूंदरी का वरण करने की चाह में पगड़ी पर मोड़ कलंगी बांधे बैठी थी। सबकी पगड़ी रह गई और दुल्हन फिर वही ले उड़ा। अब तो सांप निकलने के बाद लाठी पीटना ही बचा है केवल बाकी दुल्हों के हाथ में ।

-संदीप सृजन
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उज्जैन में बैकुंठ चतुर्दशी पर हरिहर मिलन का अद्भूत नजारा

भारतीय संस्कृति व्रतों, त्यौहारों और पर्वों की संस्कृति है। हर तिथि किसी न किसी देवी-देवता को समर्पित है और इन तिथियों के अनुसार देवी-देवताओं को श्रद्धासुमन अर्पित करने के लिए पर्वों का आयोजन किया जाता है उनकी उपासना करते हुए हर्षोल्लास के साथ त्यौहारों को मनाया जाता है। कार्तिक मास की चतुर्दशी तिथि को बैकुंठ चतुर्दशी कहा जाता है और इस दिन भगवान विष्णु के साथ महादेव की पूजा का विधान है। बैकुंठ चतुर्दशी की पूजा मध्य रात्री यानी निशिथ काल में की जाती है। मान्यता है कि बैकुंठ चतुर्दशी को श्रीहरी और महादेव की उपासना करने से पापों का नाश होता है और पुण्य फल का प्राप्ति होती है।
महाकाल की नगरी में बैकुंठ चतुर्दशी पर हरिहर मिलन का अद्भूत समागम होगा। साल में केवल एक दिन ऐसा आता है जब बिल्वपत्र की माला पहनने वाले शिव तुलसी की माला पहनते है और हमेशा तुलसी माला पहनने वाले विष्णु बिल्व पत्र की माला धारण करेंगे। यह नजारा दिखेगा केवल वैकुंठ चतुर्दशी की रात बड़े गोपाल मंदिर में होता है। रात 11 बजे बाबा महाकाल की सवारी निकलती है जो गुदरी चौराहा, पटनी बाजार होकर सिंधिया ट्रस्ट के द्वारकाधीश गोपाल मंदिर जाती है। गोपालजी के सामने महाकाल विराजते है, दोनों मंदिरों के पुजारी पूजन अभिषेक करते है। संकल्प के माध्यम से शिव यानी महाकाल चार महीने तक पृथ्वी की देखभाल के बाद गोपालजी यानी विष्णु को फिर से जिम्मेदारी देते है। वर्ष में एक बार भगवान महाकाल चांदी की पालकी में बैठकर रात में हरि यानी विष्णु से मिलने जाते हैं। इस अद्भुत मिलन को देखने हजारों लोग उमड़ते है। सवारी के बाद गोपाल मंदिर में दो घंटे अभिषेक चलता है। हरिहर मिलन बाद शिव विष्णु को तुलसी व विष्णु शिव को बिल्वपत्र की माला पहनाकर सृष्टि का भार सौंपते है। रात में पुन: सवारी महाकाल मंदिर लौटती है। मान्यता है देवशयनी एकादशी पर जब विष्णु शयन के लिए क्षीरसागर में जाते हैं तो वे पृथ्वी को संभालने का भार शिव को दे जाते हैं।  चातुर्मास के चार माह सृष्टि का संचालन भगवान शिव द्वारा किया जाता है।  
दूसरे दिन कार्तिक पूर्णिमा का स्नान शिप्रा के रामघाट पर किया जाता है। इसी दिन शिप्रा में दीपदान भी होता है जो देखने लायक नजारा होता है। रात में नगर में निकलने वाली हरिहर मिलन की सवारी में प्रशासन ने हर बार की तरह श्रद्धालुओं की सुरक्षा को देखते हुए धारा 144 के अंतर्गत हिंगोट व रॉकेट आदि खतरनाक पटाखे छोड़ने पर प्रतिबंध लगाया है।
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हर दिल अजीज थे कवि सननजी



मैंने प्यार पाया है महफिलों में लोगों से ।
वरना मेरी जिंदगी तो जिंदगी नहीं होती।।


इस पंक्तियों के लेखक उज्जैन शहर में पिछले तीन दशक से साहित्यिक गोष्ठियों और कवि सम्मेलनों में अपनी एक अलग पहचान वाले पं. अरविंद त्रिवेदी सनन 7सितम्बर 2019,रविवार को अचानक हृदयाघात के कारण अनंत की यात्रा पर निकल गये। कविता,गीत,गजल,दोहे,छंद सब कुछ उन्होंने लिखें और सबसे महत्पूर्ण बात सामयिक रचना कर्म में उनका कोई तोड़ नहीं था, देश में कोई भी घटना हो या कोई विशेष अवसर हो वे त्वरित रचना लिख देते थे। जहॉ मंचों पर वे बहुत ही मनोरंजक और हॉस्य प्रधान प्रस्तुति दे कर श्रोताओं को खूब हंसाते थे वहीं गोष्ठियों और पारिवारिक मंचों पर दर्शन और अध्यात्म से भरपूर रचना का पाठ करते थे । इसीलिए वे अक्सर अपनी गजल में कहते थे-

मैं जैसा हूं ,जहां भी हूं ,बड़ा महफूज़ हूं यारों।
मुझे अच्छा नहीं लगता किसी पहचान में रहना।।
सफर दो नाव का करना इसी को लोग कहते हैं ।
जिगर में दर्द को पाले स्वयं मुस्कान में रहना ।।

उनका लेखन तो कसावट और छंद के मापदंड पर सही था ही मंच पर उनकी प्रस्तुति अदम्य आत्मविश्वास से भरा होता था और आवाज में इतनी बुलंदी की बिना माईक के पूरा सदन उनकी आवाज सुन सकता था । सनन जी ने अपने जीवन में कई रंगमंचीय नाटकों में भी काम किया और नाटक के गीत लिखें भी लिखे इस बात को बहुत कम लोग जानते है गुणवंती नाटक के एक टायटल गीत में वे लिखते है-

ओ गुणवन्ती मेरी प्यारी मेरी, महल न मुझको सुहायें।
कहा हैं वो मेरी फटी सी गुदड़िया बिना उसके निंद न आये।।

सननजी की विशेषता थी की वे सभी के मित्र थे अदावत नाम की कोई चीज उनके जीवन में थी ही नहीं एक बार जिसने उनको सुन लिया वह उनका कायल हो गया । कृष्ण सुदामा की मित्रता को ले कर उनका एक गीत बहुत प्रसिद्ध है जो उज्जयिनी की महिमा के साथ वे प्रस्तुत करते हुए कहते थे-

कभी सुदामा कृष्ण सरिखें, इस धरती पर विद्या सीखे।
नये दौर में हमने सीखे,जीने के कुछ नये तरीके ।
तो आज भी ढूंढा करता हूँ,वो दिलदार कहॉ।
कहने को बस रही मित्रता, वैसा प्यार कहॉ।

पिछले 8 सालों से वे एक महत्वपूर्ण रचना मधुराधर के लिए सृजनरत्त थे श्रीकृष्ण के चरित्र और वर्तमान में श्रीकृष्ण की महिमा को ले कर सनन जी ने एक गीतिकाव्य कृति मधुराधर की थी जो की कुछ महिनों पहले ही 111 छंदों मे निबद्ध हो कर पूर्ण हो गई इस रचना में उन्होने एक पद में कहा है-

क्या हिन्दू और क्या मुस्लिम सबको मधुराधर भाये ।
कुछ कलाकार ऐसे भी फिल्मी दुनिया में आये ।
जब युसूफ ने ओंठ हिलाये वे भजन रफ़ी ने गाये ।
तो संगत नौशाद की सूचि में क्या खय्याम नहीं।।
ये अधर व्यर्थ है तेरे,इनका कोई काम नहीं।
जब तक इन अधरों पर है मधुराधर नाम नहीं।

उज्जैन के कवि सम्मेलनों में शहीद बलराम जोशी को समर्पित उनके गीत का पाठ होने के बाद उस ऊंचाई की कविता कोई नहीं पढ़ पाता था यह उनके रचनाकर्म की श्रेष्ठतम् रचना है । रचना पाठ के पहले वे सीमा पर चौकस जवानों के सम्मान में एक मुक्त कहते थे-

हम जीते हर जंग यहॉ, नहीं गिराई साख को ।
कभी शहीद हूआ कोई तो , शीश चढ़ाई राख को।।
हम अर्जुन  हैं वृक्ष न देखा ,न देखा उस चिड़िया को ।
हमने सदा लक्ष्य पर रक्खा उस चिड़िया की आंँख को।।

अपने काव्यपाठ की शुरुआत सननजी हमेशा एक गजल के दो शेरो से करते थे जो की मॉ को समर्पित है-

मॉ अनपढ़ है पर बच्चों का मन पढ़ लेती है।
किस्से रोज नये जाने कैसे गढ़ लेती है।
उम्र,तगारी का दोहरा बोझा ले कर।
नये मकानों की सीढ़ी कैसे चढ़ लेती है।।

पेशे से तीर्थपुरोहित रहे सनन जी हरदिल अजीज थे। 29 जुलाई1959 को जन्में सननजी अपने पैत्रिक कार्य को जीवन भर आगे बढ़ाते रहे। साहित्य जगत के कई प्रतिष्ठा सम्मान भी उन्हें मिले,दूरदर्शन और सब टीवी पर भी वे काव्य पाठ कर चूके थे।उनकी एक गजल कृति हर घर में उजाला जाए प्रकाशित हुई है। और अगली कृति मधुराधर को प्रकाशित करवाने की तैयारी में लगे थे। सननजी का यूं एकदम चले जाना मित्रों के लिए तो दुखद है ही,साहित्य जगत के लिए भी अपूर्णीय क्षति है। क्योंकि सननजी ऑलराउंडर कवि थे। विनम्र श्रद्धांजलि सननजी को...।

-संदीप सृजन
संपादक-शाश्वत सृजन
उज्जैन 

नियम तो एक सजा है



हम भारत के लोग हमेशा से नियम तोड़ने में विश्वास रखते है। नियम में रहे तो क्या जीवन। जीवन तो अलमस्त हो तभी मजा है। नियम तो वैसे भी गले में रस्सी जैसा होता है। साला एक सीमा में रहो इससे ज्यादा कुछ मत करो पर हम तो कुछ अलग करने में विश्वास रखते है और नियम-कानून इन सब को तोड़ कर ही सब कुछ करते है।
सरकार ने जब से सिंगल यूज प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाया है। बाजार मेंपार्टीयों में तांबे के लोटे और स्टील के गिलास फिर से अपना अस्तित्व जमाने के लिए प्रयास रत है । लेकिन कई सुधिजन है जो लोटे और स्टील के गिलास को हेय दृष्टि से देखते हुए बाजार से दबे छुपे जुगाड़ लगाकर डिस्पोजल गिलास, कटोरी और चम्मच से ही पार्टीयों में मजे उड़ा रहे है । कोई सरकारी नियम का हवाला दे तो कहते है नियम में मजा लिया तो क्या मजा है । नियम तो एक सजा है।
स्वच्छ भारत अभियान चलाया जा रहा है। हमसे ही टेक्स की अतिरिक्त राशि ले कर नगर पालिक निगम हमारे शहर को साफ सुथरा बनाने में लगी है ताकि भविष्य में नम्बर वन का अवार्ड मिल जाए और नेता व अधिकारी तरह-तरह से अनुरोध कर रहे है कि शहर साफ रखे गंदगी न फैलाए वरना जुर्माना लगेगा लेकिन मजाल है कि हम नियम का पालन करे । अभी नवरात्र में खीर और खीचड़ी का प्रसाद मंदिर के बाहर सड़क पर लोगो को पकड़-पकड़ कर बांटा । लोगों ने भी खाया और दोना सड़क पर फैका और चल दिए । नियम तोड़ा सार्वजनिक रूप से पर किसी अधिकारी के बाप की ताकत नहीं की प्रसाद बांटने या खाने वाले पर जुर्माना लगा सके ।सड़क पर बारात और जुलूसों में तो ये नियम डंके की चोट पर हम तोड़ते है । 
चौराहे पर सिग्नल तोड़ कर निकलना तो जैसे गर्व की बात हो इस तरह से लोग लाल बत्ती में तेज गति से निकलते है जैसे नियम इनके बाप की जागीर हो । और जो नहीं निकल पाते या वर्दी वाले के डर के मारे हिम्मत नहीं कर पाते उनका काम नियम की दुहाई देना और मन मसोसकर हरी बत्ती का इंतजार होता है।

मंदिर हो या सिनेमा घर लाईन तोड़कर नियम विरुद्ध जुगाड़ लगा कर आगे लाईन में लगकर होशियार बनने का अवसर कोई भारतवासी नहीं चूकता। ये बात अलग है कि लाख कोशिश के बावजूद कोई पहचान वाला नहीं दिखे और कोई दूसरा जुगाड़ लगा कर निकल जाए तो ईमानदारी की दुहाई देने लगते है।
रेल की टिकट खिड़की पर भय्या रेल निकल जाएगी प्लिज़ हमें टिकट ले लेने दिजिए की स्थिती से लगभग हर कोई वाकिफ है । बाकी लाईन में खड़े 50-60 लोग बेवकूफ की तरह उस भय्या वाले या वाली को देखते रहते है और वो घर से देरी से आकर सबको धत्ता दे कर नियम विरुद्ध टिकट ले कर खुशी-खुशी  प्लेटफार्म की ओर बढ़ जाते है । बाकी सब मन ही मन कुढ़ते रहते है।
देश की सरकार से लेकर किसी भी छोटे बड़े आयोजन के मंच का माईक जिनके पास होता है। वो सारे नियम तोड़ने का अधिकार रखता है। दो मिनट का समय दो घंटे में भी पूरा नहीं होता। लगता है ब्रह्मा के दो मिनट को मृत्यूलोक में लागु करने का प्रयास कर रहे है। जब तक संचालक हाथ में पर्ची न थमा दे तब तक भरे सदन नियम तोड़ने का मजा लेते रहते है।आखिर नियम से जिए तो क्या जिए मजा तो नियम तोड़ने में है।(चित्र-गुगल से साभार)
-संदीप सृजन
संपादक - शाश्वत सृजन
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सावन-भादौ के सोमवार को महाकाल महाराज अपनी प्रजा को दर्शन देने निकलते हैं


उज्जैन में निकलने वाली महाकालेश्वर की सवारी
भगवान महाकाल राजा के रूप में प्रजा का हाल-चाल जानने निकलते हैं
सावन-भादौ के सोमवार को महाकाल महाराज अपनी प्रजा को दर्शन देने निकलते हैं।
-संदीप सृजन

शिव को यूं तो घट-घट का वासी कहा गया है, संसार के हर प्राणी में शिव तत्व मौजूद हैं। हर जगह शिव का वास हैं। लेकिन शिव को जो जगह भू-लोक पर सर्वाधिक प्रिय है उनमें से एक है अवंतिकापुरी याने आज का उज्जैन शहर। जहॉ महाकाल स्वरूप में शिव विराजमान है। शिव के प्रमुख बारह स्थानों में महाकाल ज्योतिर्लिंग उज्जैन का महत्व अधिक है । इस मृत्यू लोक में महाकाल विशेष रूप से पूज्य है ,इसीलिए कहा जाता है-
आकाशे तारकं लिंगम्, पाताले हाटकेश्वरम्।
मृत्युलोके महाकालं, त्रयं लिंगम् नमोस्तुते।।
शास्त्रों में सावन माह को शिव का प्रिय मास बताया जाता है, और सोमवार को अति प्रिय वार। सावन माह में सोमवार के साथ यदी कुछ प्रसिद्ध है तो वह है उज्जैन में निकलने वाली महाकालेश्वर की सवारी।
महाकाल उज्जैन नगरी के राजाधिराज महाराज माने गए हैं। सावन-भादौ के सोमवार को महाकाल महाराज अपनी प्रजा को दर्शन देने निकलते हैं। ऐसा लोक व्यवहार में माना जाता हैं और पलक पावड़े बिछाकर जनता भी अपने महाराज का सत्कार करती हैं । सवारी की इस परम्परा की शुरुआत सिंधिया वंशजों द्वारा की गई थी । पहले श्रावण मास के आरंभ में सवारी नहीं निकलती थी, सिर्फ सिंधिया वंशजों के सौजन्य से महाराष्ट्रीयन पंचाग के अनुसार ही सवारी निकलती थी। सावन की अमावस्या के बाद भादौ की अमावस्या के बीच आने वाले सोमवार को ही सवारी निकलती थी। उज्जयिनी के प्रकांड ज्योतिषाचार्य पद्मभूषण स्व. पं. सूर्यनारायण व्यास और तात्कालिक कलेक्टर महेश निलकंठ बुच के आपसी विमर्श और पुजारियों की सहमति से तय हुआ कि क्यों न इस बार श्रावण के आरंभ से ही सवारी निकाली जाए और कलेक्टर बुच ने समस्त जिम्मेदारी सहर्ष उठाई । सवारी निकाली गई और उस समय उस प्रथम सवारी का पूजन सम्मान करने वालों में तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद नारायण सिंह, राजमाता सिेंधिया व शहर के गणमान्य नागरिक प्रमु्ख थे। सभी पैदल सवारी में शामिल हुए और शहर की जनता ने रोमांचित होकर घर-घर से पुष्प वर्षा की। इस तरह एक खूबसूरत परंपरा का आगाज हुआ।
मंदिर की परंपरा अनुसार प्रत्येक सावन सोमवार के दिन महाकालेश्वर भगवान की शाम चार बजे मंदिर से सवारी शुरू होती हैं। सबसे पहले भगवान महाकाल के राजाधिराज रूप (मुखौटे) को उनके विशेष कक्ष से निकल कर भगवान महाकाल के सामने रखकर उन्हें आमंत्रित कर उनका विधिविधान से आह्वान किया जाता हैं। मंत्रों से आह्वान के बाद ये माना जाता है कि बाबा महाकाल अपने तेज के साथ मुखौटे में समा गए हैं, इसके बाद ही सवारी निकाली जाती है। जब तक सवारी लौटकर नहीं आती तब तक बाबा महाकाल की आरती नहीं की जाती। तत्पश्चात् जिले के प्रशासनिक अधिकारी और शासन के प्रतिनिधि द्वारा  भगवान महाकालेश्वर को विशेष श्लोक, मंत्र और आरती के साथ अनुग्रह किया जाता है कि वे अपने नगर के भ्रमण के लिए चलने को तैयार हों।
भगवान महाकाल राजा के रूप में प्रजा का हाल-चाल जानने निकलते हैं तब उन्हें उपवास होता है। अत: वे फलाहार ग्रहण करते हैं। विशेष कर्पूर आरती और राजाधिराज के जय-जयकारों के बीच उन्हें चांदी की नक्काशीदार खूबसूरत पालकी में प्रतिष्ठित किया जाता हैं। यह पालकी इतने सुंदर फूलों से सज्जित होती हैं कि इसकी छटा देखते ही बनती हैं। भगवान के पालकी में सवार होने और पालकी के आगे बढ़ने की बकायदा मुनादी होती हैं। तोपों से उनकी पालकी के उठने और आगे बढ़ने का संदेश मिलता हैं। पालकी उठाने वाले कहारों का भी चंदन तिलक से सम्मान किया जाता हैं। पालकी के आगे बंदुकची धमाके करते हुए चलते हैं जिससे पता चले की सवारी आ रही हैं। राजा महाकाल की जय के नारों से मंदिर गूंज उठता हैं। भगवान की सवारी मंदिर से बाहर आने के बाद गार्ड ऑफ ऑनर दिया जाता है और सवारी रवाना होने के पूर्व चौबदार अपना दायित्व का निर्वाह करते हैं और पालकी के साथ अंगरक्षक भी चलते हैं। सवारी हाथी, घोड़ों, पुलिस बेंड से सुसज्जित रहती हैं।
श्रावण और भादौ मास की इस विलक्षण सवारी में देश-विदेश से नागरिक शामिल होते हैं। मान्यता है कि उज्जैन में प्रतिवर्ष निकलने वाली इस सवारी में राजा महाकाल, प्रजा की दुख-तकलीफ को सुनकर उन्हें दूर करने का आशीर्वाद देते हैं।
विभिन्न मार्गों से होते हुए सवारी मोक्षदायिनी शिप्रा के रामघाट पहुंचती है। यहां पुजारी शिप्रा जल से भगवान का अभिषेक कर पूजा अर्चना किया जाता है। पूजन पश्चात सवारी पारम्परिक मार्गों से होते हुए शाम करीब सात बजे मंदिर पहुंचती है। इसके बाद संध्या आरती होती है । जब शहर की परिक्रमा हर्षोल्लास से संपन्न हो जाती है और मंदिर में भगवान राजा प्रवेश करते हैं तो उनका फिर उसी तरह पुजारी गण फिर से मंत्रों से प्रार्थना कर बाबा से शिवलिंग में समाहित होने की याचना करते हैं। इसके बाद मुखौटा वापस मंदिर परिसर में रख दिया जाता है। कहा जाता है सफलतापूर्वक यह सवारी संपन्न हुई है अत: हे राजाधिराज आपके प्रति हम विनम्र आभार प्रकट करते हैं।
हर सौमवार को अलग अलग रूप में भगवान महाकाल नगर भ्रमण करते है ।
मनमहेश : महाकाल सवारी में पालकी में भगवान मनमहेश को विराजित किया जाता है। पहली सवारी में भगवान सिर्फ मनमहेश रूप में ही दर्शन देते हैं।
चंद्रमौलेश्वर : दूसरी सवारी में पालकी पर विराजकर भगवान चंद्रमौलेश्वर भक्तों को दर्शन देने के लिए निकलते हैं। मनमहेश व चंद्रमौलेश्वर का मुखौटा एक सा ही नजर आता है।
उमा-महेश : इस मुखौटे में महाकाल संग माता पार्वती भी नजर आती हैं। यह मुखौटा नंदी पर निकलता है।
शिव तांडव : भगवान इस मुखौटे में भक्तों को तांडव करते हुए नजर आते हैं। यह गरुढ़ पर विराजित है।
जटाशंकर : भगवान का यह मुखौटा सवारी में बैलजोड़ी पर निकलता है। इसमें भगवान की जटा से गंगा प्रवाहित होती नजर आती है।
होल्कर : भगवान इस रूप में होल्कर पगड़ी धारण किए हुए हैं। होल्कर राजवंश की ओर से यह सवारी में शामिल होता हैं।
सप्तधान : सप्तधान रूप में भगवान नरमुंड की माला धारण किए हुए हैं। मुखौटे पर सप्तधान अर्पित होते हैं।

आखरी सवारी को को शाही सवारी कहा जाता है यह भादौ की अमावस्या के पहले आने वाले सोमवार को शाही सवारी निकाली जाती है । इस शाही सवारी में महाकाल सातों स्वरूप में एक साथ निकलते हैं, नगर के लगभग सारे बेंड बाजे वाले, किर्तन भजन मंडलिया, विभिन्न अखाड़े, बहुरुपिए शामिल होते है और शाही सवारी की शोभा बढ़ाते हुए भगवान महाकाल के प्रति अपनी आस्था अभिव्यक्त करते हैं। शाही सवारी का मार्ग अन्य सवारियों से ज्यादा लम्बा होता है। कुछ नये मार्गों से यह सवारी निकलती हैं। इस सवारी को देखने देश भर से श्रद्धालु उज्जैन आते हैं। पुरा शहर दुल्हन की तरह सजाया जाता हैं, तोरण बांधे जाते हैं, जगह जगह मंच बनाकर अपने महाराज का स्वागत किया जाता हैं ।शाही सवारी वाले दिन उज्जैन की छटा अद्भूत होती हैं । हर कोई महाकाल महाराज के स्वागत की तैयारी में लगा होता हैं। शाही सवारी का पूजन-स्वागत-अभिनंदन शहर के बीचों बीच स्थित गोपाल मंदिर में सिंधिया परिवार की ओर से किया गया। यह परंपरा सिंधिया परिवार की तरफ से आज भी जारी है। पहले तात्कालिक महाराज स्वयं शामिल होते थे। बाद में राजमाता नियमित रूप से आती रहीं फिर माधवराव सिंधिया और अब ज्योतिरादित्य सिंधिया के द्वारा परम्परा का पालन किया जा रहा है।
- संदीप सृजन
संपादक-शाश्वत सृजन
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तुलसीदास के शब्दों में गुरु महिमा


तुलसीदास के शब्दों में गुरु महिमा
गुरू बिन भवनिधि तरहिं न कोई,जौं बिरंचि संकर सम होई।


भारतीय वांग्मय में गुरु को इस भौतिक संसार और परमात्म तत्व के बीच का सेतु कहा गया है। सनातन अवघारणा के अनुसार इस संसार में मनुष्य को जन्म भले ही माता पिता देते है लेकिन मनुष्य जीवन का सही अर्थ गुरु कृपा से ही प्राप्त होता है । गुरु जगत व्यवहार के साथ-साथ भव तारक पथ प्रदर्शक होते है । जिस प्रकार माता पिता शरीर का सृजन करते है उसी तरह गुरु अपने शिष्य का सृजन करते है। शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है अंधकार और रु का का अर्थ उसका निरोधक । याने जो जीवन से अंधकार को दूर करे उसे गुरु कहा गया है।
आषाढ़ की पूर्णिमा को हमारे शास्त्रों में गुरुपूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। गुरु के प्रति आदर और सम्मान व्यक्त करने के वैदिक शास्त्रों में कई प्रसंग बताए गये हैं। उसी वैदिक परम्परा के महाकाव्य रामचरित मानस में गौस्वामी तुलसीदास जी ने कई अवसरों पर गुरु महिमा का बखान किया है।
मानस के प्रथम सौपान बाल काण्ड में वे एक सौरठा में लिखते है-
बंदउँ गुरु पद कंज, कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज, जासु बचन रबि कर निकर।
अर्थात - मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल की वंदना करता हूँजो कृपा सागर है और नर रूप में श्री हरि याने भगवान हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं।
रामचरित मानस की पहली चौपाई में गुरु महिमा बताते हुए तुलसी दास जी कहते है-
बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।
अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू।
अर्थात- मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँजो सुरुचि (सुंदर स्वाद)सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण हैजो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है।
इसी श्रंखला में वे आगे लिखते है-
श्री गुर पद नख मनि गन जोती,सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती।
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू।
अर्थात- श्री गुरु महाराज के चरण-नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान हैजिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने वाला हैवह जिसके हृदय में आ जाता हैउसके बड़े भाग्य हैं।
बाल काण्ड में ही गोस्वामी जी राम की महिमा लिखने से पहले लिखते है-
गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥
अर्थात- गुरु महाराज के चरणों की रज कोमल और सुंदर नयनामृत अंजन हैजो नेत्रों के दोषों का नाश करने वाला है।
गुरु के सम्मुख कोई भेद छुपाना नहीं चाहिए इस बात को तुलसीदास जी मानस के बाल काण्ड में ही दोहे के माध्यम से कहते है-
संत कहहिं असि नीति प्रभु, श्रुति पुरान मुनि गाव।
होइ न बिमल बिबेक उर, गुर सन किएँ दुराव।
अर्थात- संत लोग ऐसी नीति कहते हैं और वेदपुराण तथा मुनिजन भी यही बतलाते हैं कि गुरु के साथ छिपाव करने से हृदय में निर्मल ज्ञान नहीं होता।
बाल काण्ड में ही शिव पार्वती संवाद के माध्यम से गुरु के वचनों की शक्ति बताते हुए वे कहते है-
गुरके बचन प्रतीति  जेहि,सपनेहुँ सुगम  सुख सिधि तेही।
अर्थात-जिसको गुरु के वचनों में विश्वास नहीं होता है उसको सुख और सिद्धि स्वप्न में भी प्राप्त नहीं होती है।
अयोध्या कण्ड के प्रारम्भ में गुरु वंदना करते हुए हुए तुलसीदास जी कहते है-
जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं,ते जनु सकल बिभव बस करहीं।
मोहि सम यह अनुभयउ न दूजें,सबु पायउँ रज पावनि पूजें।
अर्थात- जो लोग गुरु के चरणों की रज को मस्तक पर धारण करते हैं, वे मानो समस्त ऐश्वर्य को अपने वश में कर लेते हैं।इसका अनुभव मेरे समान दूसरे किसी ने नहीं किया।आपकी पवित्र चरण-रज की पूजा करके मैंने सबकुछ पा लिया।
अयोध्या काण्ड में ही राम और सीता के संवाद के माध्यम से गौस्वामी जी एक दोहे में कहते है-
सहज सुहृद गुर स्वामि सिख,जो न करइ सिर मानि ।
सो पछिताइ अघाइ उर.अवसि होइ हित हानि ।
अर्थात- स्वाभाविक ही हित चाहने वाले गुरु और स्वामी की सीख को जो सिर चढ़ाकर नहीं मानता वह हृदय में खूब पछताता है और उसके अहित की अवश्य होता है ।
उत्तर काण्ड में काकभुशुण्डिजी के माध्यम से एक चौपाई में कहते है-
गुरू बिन भवनिधि तरहिं न कोई। जौं बिरंचि संकर सम होई।।
भले ही कोई भगवान शंकर या ब्रह्मा जी के समान ही क्यों न हो किन्तु गुरू के बिना भवसागर नहीं तर सकता।
और भी कईं प्रसंगों के माध्यम से तुलसीदासजी ने गुरु महिमा का वर्णन अपनी रचनाओं में किया हैं। गुरु की महिमा को स्वीकार करने वालों के लिए शब्दों की नहीं भाव की प्रधानता होती है। गुरु के प्रति समर्पण की जरुरत होती है। गुरु पूर्णिमा एक अवसर होता है जब हम गुरु के प्रति सम्मान सत्कार और अपनी तमाम भावनाएँ उन्हें समर्पित करते हैं।

-संदीप सृजन
संपादक - शाश्वत सृजन
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कुकृत्यों के लिए प्रेरित करने में इंटरनेट की भूमिका अहम है


समाज के लिए अभिशाप बन रहा है मोबाइल का आविष्कार
                                                                
     



दुष्यंत कुमार ने कहा था-
"हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए ।"

पिछले कुछ दिनों से अखबारों की सुर्खिया नन्हीं कोपलों की चीखों से भरी हुई है । देश के किसी न किसी कोने से रोज कुकृत्य की खबर आती है। विरोध के स्वर पुरे देश में गुंजते है । पीड़िता के लिए न्याय की मांग की जाती है । और कुछ दिनो की गहमा- गहमी के बाद सब ठंडे बस्ते में चले जाते है । होता कुछ नहीं हैकुछ दिनो बाद फिर इसी तरह की घटना देश में होती है और फिर वही स्थिती बनती है । आखिर क्या वजह है, घटनाएँ कम होने की बजाए बढ़ती जा रही है

धर्म और जाति से ऊपर उठकर सोचना होगा समाज को , कि आखिर क्यों कलियों को मसला जा रहा है, क्यों मनुष्य समाज से मनुष्यता के गुण पैशाचिक होते जा रहे है । क्यों माली ही कलियों को कुचल रहे है ?

इसका जवाब है हमारे हाथों में चौबिसों घंटे रहने वाला मोबाइल फोन । 

बचपन में हमें एक निबंध सिखाया गया था "विज्ञान वरदान या अभिशाप", मोबाइल का आविष्कार निंदेह शुरुआत में किसी वरदान से कम नहीं था, लेकिन आज यह अभिशाप बन चुका है । 

हाल ही में उज्जैन में एक पॉच साल की बच्ची के साथ घिनौना कृत्य करने वाले अपराधी को जब पुलिस ने रिमांड पर लिया तो उसने बताया की घटना से पहले उसने मोबाइल पर अश्लील फिल्म देखी और फिर शराब पी कर मासुम के साथ दुष्कृत्य किया और उसकी हत्या करने के लिए नदी में फेक दिया ।

नि:संदेह इंटरनेट के माध्यम से विकास की नई कथाएँ लिखी जा रही है ,वहीं इस तरह के कुकृत्यों के लिए प्रेरित करने में भी इंटरनेट की ही भूमिका अहम है ।

जब मोबाइल में इंटरनेट नहीं था तब भी समाज में अश्लील फिल्में और किताबें थी लेकिन उस समय अश्लील फिल्म देखने वाले, किताबें पढ़ने वाले के मन में भय रहता था की कोई देख न ले । समाज में बदनामी होगी ।

जब से एंड्राइड मोबाइल का दौर आया है दुनिया सच में मुठ्ठी में आ गई । लेकिन ठीक उसी तरह जैसे फसल के साथ खरपतवार होती है, अच्छी और ज्ञानवर्धक सामग्री के साथ अश्लील और सामाजिक वैमनस्यता पैदा करने वाली खरपतवार भी बढ़ती जा रही है। और वर्तमान में यह स्थिती है कि सोश्यल साईड के नाम से जो वेबसाइड चल रही है उन पर हर तीसरी चौथी पोस्ट एडल्ट होती है । यूट्यूब जैसी कई साईडस् है जो हर घर में अश्लील विडियों पहुंचा रही है । माना कि वेबसाइड चलाने वालों का व्यवसाय है ,लेकिन ऐसे घातक व्यवसाय पर सरकारी रोक लगाना बेहद जरूरी है । जो व्यवसाय समाज के नैतिक मूल्यों की गिरावट का कारण हो उस व्यवसाय पर प्रतिबंध होना चाहिए । 
मोमबत्ती जलाकर, जुलुस निकाल कर विरोध करने या अपराधी को फांसी की मांग करने के साथ अपराध की मानसिक स्थिती जिससे पैदा हो उस पर प्रतिबंध लगाने की मांग जरुरी है । 

हाल ही एक जानकारी सामने आई की पिछले 15 साल में बलात्कार कर हत्या के जितने भी मामलों में मौत की सजा दी गई वे सारे अपराधी अभी तक जेल की रोटियां तोड़ रहे है । 15 साल से सजा पर अमल नहीं किया गया । कारण न्याय व्यवस्था का लचिला होना । आरोप सिद्ध होने के बाद निचली अदालतो के फैसलों पर फिर से बहस होना, दया याचिका के नाम पर राष्टपति के पास अपील करना और उस अपील पर धूल की परत जमने तक कोई विचार या निर्णय नहीं करना । जो की अपाधियों के मन से मौत की सजा के भय को खत्म कर देता है । जो भारतीय न्याय व्यवस्था की बड़ी कमजोरी है ।
समाज को आने वाले समय की भयवाह स्थिती बचाना है, नन्हीं मासुमों और महिलाओं को सुरक्षित जीवन देना है तो भारत सरकार को भारत में इंटरनेट पर चल रहीं पोर्न साइडों पर सख्ती से पाबंदी लगाना होगी । जब तक पोर्न वेबसाइट इंटरनेट पर है तब तक स्वच्छ समाज की कल्पना नहीं की जा सकती, स्वच्छ भारत का सपना हम सभी देख रहे है लेकिन यह तब संभव होगा जब हमारे समाज के मन और मस्तिष्क में स्वच्छता आएगी ।

-संदीप सृजन
संपादक - शाश्वत सृजन
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