हिंदी भाषा का प्रभाव विश्व की अन्य भाषाओं पर भी पड़ रहा है
अगली पीढ़ी के प्राणों में भी बसानी होगी हिन्दी
हिन्दी भाषा भारत में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। यह हम भारतीयों की पहचान है। भारत में अनेक भाषाएं हैं मगर फिर भी हिन्दी का प्रभाव सर्वत्र देखा जा सकता है। विश्वभर में करोड़ों लोग हिन्दी भाषा का प्रयोग करते हैं। हिन्दी भाषा एक ऐसी भाषा है,जिसमें जो हम लिखते हैं,वही हम बोलते हैं उसमें कोई बदलाव नहीं होता है। हिन्दी भाषा की सहयोगी लिपि देवनागरी इसे पूरी तरह वैज्ञानिक आधार प्रदान करती है।
इन सभी कारणों से 14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा ने यह निर्णय लिया कि हिन्दी केन्द्र सरकार की आधिकारिक भाषा होगी और हिन्दी को राजभाषा बनाने का निर्णय लिया और इसी निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने तथा हिन्दी को प्रत्येक क्षेत्र में प्रसारित करने के लिये वर्ष 1953 से पूरे भारत में 14 सितम्बर को प्रतिवर्ष हिन्दी-दिवस के रूप में मनाया जाने लगा ।
हिन्दी को समृद्ध करने में सबसे बड़ा योगदान संस्कृत का है। संस्कृत विश्व की सबसे प्राचीन भाषा मानी गई है और हिन्दी का जन्म संस्कृत की कोख से ही हुआ है। कई संस्कृत शब्दों का प्रयोग हिन्दी में बिना किसी परिवर्तन के किया जाता है,उन शब्दों का उच्चारण और ध्वनि भी संस्कृत के समान ही है। इस कारण हिन्दी को एक विशाल शब्द कोष जन्म के साथ ही संस्कृत से मिला है,जो उसके अस्तित्व को विराट बनाता है ।
हिन्दी यूँ तो हमें परम्परा से मिली भाषा है,इस कारण से इसे पैत्रृक सम्पत्ति ही माना जाना चाहिए । जब हम छोटे बच्चे थे और बोलना सीख रहे थे,उस समय हमारे परिवेश की जो भाषा थी वह उम्र के किसी भी पड़ाव पर जाने के बाद भी सहज और सरल ही लगती है।मगर अब लगता है कि अंग्रेजी का प्रभुत्व हिन्दी पर प्रभाव डाल रहा है। हिन्दी का अस्तित्व तभी रहेगा जब हम उसे दिल में बैठा ही रखेंगे । हमें अगली पीढ़ी तक हिन्दी को प्रभावी स्वरुप में पहुंचाना होगा। याद रहे बोलने वालों की, समझने वालों की संख्या में जब वृद्धि होती है, तो भाषा का विस्तार होता चला जाता है हिन्दी के साथ यही होना चाहिए। हिन्दी को अब सिर्फ राजभाषा नहीं राष्ट्र भाषा का सम्मान मिलना चाहिए।
संदीप सृजन
ए-99 विक्रमादित्य क्लॉथ मार्केट
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आदर्श जीवन की मिसाल गांधीजी और शास्त्रीजी
महात्मा
गांधी और लाल बहादुर शास्त्री ऐसे दो महामानव जो भारत के भाग्य विधाता रहे, जिनकी
विचार धारा एक दुसरे की पूरक रही। जो देश के लिए जिए और देश के हित में ही काल के
ग्रास बने । देश और समाज के प्रति दोनों की समर्पण भावना में किंचित मात्र भी
संदेह नहीं किया जा सकता है। ऐसे दोनों महापुरुषों का जन्म दिन एक साथ होना भी
किसी महान संयोग से कम नहीं है।
गांधीजी अहिंसा
के प्रबल समर्थक, शांति के अग्रदूत रहे। तो शास्त्री जी दृढ़ इच्छा शक्ति के व्यक्तित्व
बनकर समाज में उभरे। गांधी जी के जीवन ने न केवल भारतीय समाज को प्रभावित किया वरन
विश्व के तमाम देशों में उनके जीवन को आदर्श जीवन के आधार माना जाता है। तो
शास्त्री जी की नैतिक कार्यशैली और दूरदर्शिता का कोई सानी नहीं है। वर्तमान समय
में बढ़ती भूखमरी, बेरोजगारी, विश्व
हिंसा, वैश्विक आर्थिक मंदी और आपसी वैमनस्यता जैसी समस्याओं
से सारा विश्व आहत है। ऐसे समय में महात्मा गांधी और शास्त्री जी के विचारों की
प्रासंगिकता और अधिक हो जाती है। तथा उनके कार्यों के अनुसरण से विश्व की तमाम
समस्याओं का हल हो सकता है।
गांधी जी
अपने समय के तमाम महापुरुषों में बिरले थे क्योंकि उन्होंने सत्य और नैतिक जीवन को
सिर्फ जीया ही नहीं लिखने का साहस भी किया। अपने आदर्शो को तो समाज के सामने रखा
पर अपने जीवन की बुराइयों को छुपाने की कोशिश भी नहीं की। यह उनकी सत्यनिष्ठा को
दर्शाता है।
गांधी जी
को वैष्णव संस्कार अपनी माँ से जनम घुट्टी के साथ मिले थे। गांधी जी के जीवन में
नरसी मेहता के भजन वैष्णव जन तो तेने कहिये का बहुत प्रभाव रहा। इस भजन को ही
गांधीजी ने अपने जीवन में अंगीकार किया। इस भजन में उल्लेखित गुण परोपकार, निंदा न करना, छल कपट रहित जीवन, इंद्रियों पर नियंत्रण, सम दृष्टि रहना, पर स्त्री को माता मानना, असत्य नहीं बोलना, चोरी न करना को जीवन पर्यंत
अपनाया और इन्हीं के द्वारा भारत में राम राज की स्थापना की संकल्पना की। ये गुण
ही मोहनदास गांधी को महात्मा गांधी बनाते है।
वहीं लाल
बहादुर शास्त्री बचपन से अभावों में पले और बड़े हुए लेकिन अपने मितव्ययी और
आत्मनिर्भर स्वभाव के चलते हर हाल में खुश रहने वाले व्यक्तियों में थे। बड़े होने
के साथ ही लाल बहादुर शास्त्री विदेशी दासता से आजादी के लिए देश के संघर्ष में
अधिक रुचि रखने लगे। वे महात्मा गांधी द्वारा चलाए जा रहे स्वाधिनता आंदोलन से
प्रभावित थे। लाल बहादुर शास्त्री जब केवल ग्यारह वर्ष के थे तब से ही उन्होंने
राष्ट्रीय स्तर पर कुछ करने का मन बना लिया था।
गांधी जी
ने असहयोग आंदोलन में शामिल होने के लिए अपने देशवासियों से आह्वान किया था, इस समय लाल बहादुर
शास्त्री केवल सोलह वर्ष के थे। उन्होंने महात्मा गांधी के इस आह्वान पर अपनी
पढ़ाई छोड़ देने का निर्णय कर लिया था। उनके इस निर्णय ने उनकी मां की उम्मीदें
तोड़ दीं। उनके परिवार ने उनके इस निर्णय को गलत बताते हुए उन्हें रोकने की बहुत
कोशिश की लेकिन वे इसमें असफल रहे। लाल बहादुर ने अपना मन बना लिया था। उनके सभी
करीबी लोगों को यह पता था कि एक बार मन बना लेने के बाद वे अपना निर्णय कभी नहीं
बदलेंगें क्योंकि बाहर से विनम्र दिखने वाले लाल बहादुर अन्दर से चट्टान की तरह
दृढ़ हैं।
गांधीजी
आधुनिक भारत के अकेले नेता थे जो किसी एक वर्ग एक विषय एक लक्ष्य को लेकर नहीं चले, जन-जन के नेता थे,
करोड़ों लोगों के ह्रदय पर राज करते थे, गांधीजी
साम्राज्यवाद, जातिय सांप्रदायिक समस्या, भाषा नीति और सामाजिक सुधार पर अपने व्यक्तिगत और राष्ट्रीय सरोकार जो की
गांधी को महान विभूति बनाते है।
वहीं
शास्त्री जी ने भी स्वतंत्रता के पहले गांधीजी के साथ नमक कानून को तोड़ते हुए
दांडी यात्रा की। इस प्रतीकात्मक सन्देश ने पूरे देश में एक तरह की क्रांति ला दी।
लाल बहादुर शास्त्री विह्वल ऊर्जा के साथ स्वतंत्रता के इस संघर्ष में शामिल हो
गए। उन्होंने कई विद्रोही अभियानों का नेतृत्व किया एवं कुल सात वर्षों तक ब्रिटिश
जेलों में रहे। आजादी के इस संघर्ष ने उन्हें पूर्णतः परिपक्व बना दिया।
स्वतंत्र
भारत में शास्त्री जी ने केंद्रीय मंत्रिमंडल के कई विभागों का प्रभार संभाला – रेल मंत्री; परिवहन एवं संचार मंत्री; वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री;
गृह मंत्री एवं नेहरू जी की बीमारी के दौरान बिना विभाग के मंत्री
रहे। एक रेल दुर्घटना, जिसमें कई लोग मारे गए थे, के लिए स्वयं को जिम्मेदार मानते हुए उन्होंने रेल मंत्री के पद से
इस्तीफा दे दिया था। लेकिन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने इस्तीफा स्वीकार नहीं
किया। रेल दुर्घटना पर लंबी बहस का जवाब देते हुए लाल बहादुर शास्त्री ने कहा;
“शायद मेरे लंबाई में छोटे होने एवं नम्र होने के कारण लोगों को
लगता है कि मैं बहुत दृढ नहीं हो पा रहा हूँ। यद्यपि शारीरिक रूप से में मैं मजबूत
नहीं है लेकिन मुझे लगता है कि मैं आंतरिक रूप से इतना कमजोर भी नहीं हूँ।”
सारे
विश्व के लिए समरसता, सद्भाव, अहिंसा और सत्य की बात करने वाले गांधी जी
भारतीय स्वतंत्रता संगाम के वो चमत्कारिक नायक बने जिनके एक आव्हान पर भारत का
समूचा जनमानस एकत्रित और संगठित रूप में ब्रिटिश शासकों के विरुद्ध खड़ा हो गया
था। गांधी जी ने नस्लभेद मिटाने के साथ हिंदु समाज के अविभाज्य अंग को हरिजन नाम
दिया और हिन्दू-मुस्लिम में एकता स्थापित करने के कई प्रयास भी किए। उन्होंने
चंपारण से स्वाधीनता की बिगुल बजाई और खिलाफत में हिंदू-मुस्लिम की एकता की मिसाल
पेश की वह अद्भुत थी।
वहीं तीस
से अधिक वर्षों तक अपनी समर्पित सेवा के दौरान लाल बहादुर शास्त्री अपनी उदात्त
निष्ठा एवं क्षमता के लिए लोगों के बीच प्रसिद्ध हो गए थे। विनम्र, दृढ, सहिष्णु एवं जबर्दस्त आंतरिक शक्ति वाले शास्त्री जी लोगों के बीच ऐसे
व्यक्ति बनकर उभरे जिन्होंने लोगों की भावनाओं को समझा। वे दूरदर्शी थे जो देश को
प्रगति के मार्ग पर लेकर आये। लाल बहादुर शास्त्री महात्मा गांधी के राजनीतिक
शिक्षाओं से अत्यंत प्रभावित थे। अपने गुरु महात्मा गाँधी के ही लहजे में एक बार
उन्होंने कहा था – “मेहनत प्रार्थना करने के समान है।”
उन्होने ही देश को जय जवान-जय किसान का नारा दिया। महात्मा गांधी के
समान विचार रखने वाले लाल बहादुर शास्त्री भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठ पहचान हैं।
2
अक्टूबर 1869 को गांधी जी और 2 अक्टूबर 1904 को लाल बहादुर शास्त्री का जन्म हुआ और
दोनों महामानवों के विचार और वैचारिक दृढ़ता में अद्भूत सामंजस्य था। दोनों ने
भारत को आजादी दिलाने के लिए तन-मन-धन से लोगों को जोड़ा साथ ही स्वावलंबी समाज की
और जन-जन को प्रवृत किया। वहीं नैतिक जीवन जी कर समाज को संदेश दिया जो कि सामान्य
मनुष्य के लिए संभव नहीं होता है। यह वजह रही होगी की उस समय महान वैज्ञानिक
अल्बर्ट आइंस्टीन ने गांधी जी के बारे में बिलकुल सटीक कहा था कि “भविष्य
की पीढ़ियों को इस बात पर विश्वास करने में मुश्किल होगी कि हाड़-मांस से बना ऐसा
कोई व्यक्ति भी कभी धरती पर आया था।“ वही लाल बहादुर
शास्त्री के बारे में कहा जाता है कि वे “छोटे कद के बड़े
व्यक्ति थे”। दोनों महापुरुषों को सादर नमन...।
-संदीप सृजन
संपादक- शाश्वत सृजन
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हर दिन को हिंदी दिवस बनाना होगा



सितम्बर की हवाओं में न जाने कौन सी मादकता है कि हिंदी के दिवाने झूमने लगते है। देश के कोने- कोने से समाचार आने लगते है कि हिंदी को बढ़ावा मिले इसके लिए महानगर, शहर, गॉव, गली, मुहल्लों में संगोष्ठी की जा रही है। कवि गोष्ठी की जा रही है। लोगों को हिंदी के प्रति आकर्षित करने के लिए तरह तरह के आयोजन किए जा रहे है। इस वर्ष कोरोना के चलते सारे आंदोलन अन्तर्जाल पर संचलित हो रहे है।
हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की
मांग इस तरह की गतिविधियों का संचालन कुछ हिंदी प्रेमी करते है। लेकिन आठ-दस हजार
की जनसंख्या वाले किसी गॉव में होने वाले इन आयोजनों में भागीदारी करने वालों की
संख्या देखें तो चौकाने वाली होगी। मात्र दस- बीस लोग ही इस तरह के आयोजनों में
भागीदार दिखेंगे। नगर हो या महानगर हो अधिकतम सौ-डेढ सौ लोग हिंदी के नाम पर
आयोजित किसी चर्चा में उपस्थित होते है। जो कि आंदोलन को अपने बलबुते पर चला रहे है। अपनी मांग रखते आ रहे है।
लेकिन हिंदी को राजभाषा से राष्ट्रभाषा बनाने के तमाम प्रयास पिछले सात दशक से आज
तक ज्यों के त्यों है। हिंदी के नाम पर संघर्ष के लिए तीसरी पीढ़ी तैयार हो गई पर
संघर्ष खत्म होने के आसार नहीं दिख रहे।
साहित्यिक आंदोलनों से परिवर्तन की
पहल सदा से होती रही है। पर जब तक राजकीय इच्छा शक्ति का साथ नहीं हो तब तक हिंदी
दिवस या हिंदी माह मना लेने भर से हिंदी को राष्ट्रभाषा हम नहीं बना सकते। नई
शिक्षा नीति में जो मातृभाषा के लिए प्रावधान किए गये है वो सुखद है। उम्मीद की
किरण है। और एक मजबूत राह है। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए।
हिंदी को सम्मान दिलाने के लिए
सरकार से अपनी मांग बनाए रखना तो ठीक है पर हिंदी से पहले मातृभाषा याने लोकभाषाओं
को जीवित रखने के लिए व्यवहारिक प्रयास हमें करने होंगे। लोगों को अपनी मातृभाषा के
आरंभिक संस्कार घर से ही मिलते हैं, जिसमें परिवार की महिलाओं की अहम् भूमिका होती
है। जो भाषा घुट्टी में मिली हो उसी भाषा को मातृभाषा कहा जाता है। मातृभाषा शब्द
केवल मां का पर्याय नहीं होता है वह हमारे मूल परिवेश को इंगित करता है जिसमें
व्यक्ति का बचपन बीता है। जिसमें जीवन की शुरुआत हुई हो।
हम मध्यप्रदेश की लोक भाषाओं कि ही
बात करे तो मालवी, निमाड़ी, बुंदेली, बघेली, गोंड़वी, ब्रज, भीली, कोरकू, बेगी, आदि जो लोक भाषाएँ है वे
हाशिए पर आ गई है। कुछ बोलियों के बोलने वाले तो केवल ग्रामीण या आदिवासी अंचल में
रह गये है। नई पीढ़ी अपनी पारम्परिक बोली में बात करने में शर्म महसूस करती है।
कुछ शब्द तो हमारी पीढ़ी ने भी इन लोकभाषाओं के नहीं सुने है। जो शब्द रहे है उसे
भी बोलने वाले अब विदा हो रहे हैं। जो कि एक बोली का अवसान नहीं एक संस्कृति का एक
सभ्यता का और एक परम्परा का अवसान है।
हिन्दी की समृद्धि में लोकभाषाओं
का, बोलियों का अहम योगदान रहा है। आज जो हिंदी का स्वरूप है। उसमें भारत की हर
बोली, हर भाषा का अंश है। जो हिंदी को वैश्विक पटल पर बड़ी पहचान दिलाता है। हम
रहन-सहन से कितने भी आधुनिक हो पर आने वाली पीढ़ी की जड़े यदि मजबूत रखना चाहते है,
संस्कार और सभ्यता को बचाना है तो स्थानीय व्यवहार में, व्यापार में और बोलचाल में अपनी
लोकभाषा को महत्व देना होगा । बाहरी व्यवहार में जहॉ उस बोली को समझा नहीं जा सके
वहॉ हिंदी को महत्व दे। आज हिंदी पूरे भारत में पढ़ी और आसानी से समझी जा रही है।
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अब हिंदी का डंका बज रहा है। गुगल जैसा वैश्विक मंच
हिंदी को पूरा महत्व देते हुए सारी जानकारी हिंदी में उपलब्ध करवा रहा है।
अंग्रेजी या अन्य विदेशी भाषा में
दक्षता प्राप्त करना बुरा नहीं है। यह अतिरिक्त योग्यता है। जो हर किसी में होना
चाहिए लेकिन अपनी बोली अपनी भाषा और अपनी राष्ट्रभाषा को छोड़ कर नहीं। हिंदी को और स्थानीय भाषाओं को यदि
सम्मान दिलाना है तो पाठ्य पुस्तक से निर्मित मानव से कुछ नहीं होगा। इसके लिए
हमें अपने परिवेश अपनी विचारधारा और अपने कर्तव्यों में हिंदी का उपयोग करना होगा।
वे तमाम लोग जो हिंदी के लिए
आंदोलन कर रहे हैं उनको सबसे पहले अपने लिए नियम बनाना होंगे कि हम बच्चों से
पढ़ाई के समय को छोड़कर हिंदी का अधिकतम उपयोग करेंगे। हमारा जोर हिंदी के शब्दों
और अभिव्यक्तियों के प्रयोग पर रहेगा। हमारे बच्चे का दिमाग हिंदी में भी अन्य
भाषाओं की अपेक्षा समान रूप से चलेगा, उनकी हिंदी कामचलाऊ या हंग्लिश ना होकर
स्तरीय होगी। केवल 14 सितम्बर को ही
नहीं हर दिन को हिंदी दिवस बनाना होगा। तभी हिंदी को राष्ट्रभाषा का सम्मान
प्राप्त होगा।
-संदीप सृजन
संपादक-शाश्वत सृजन
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क्षमापना पर्व विशेष - आत्म कल्याण की राह क्षमापना
जैन धर्म मे पर्युषण महापर्व को सभी पर्वों का
राजा यानि पर्वाधिराज कहा जाता है। लौकिक जगत के जितने पर्व आते है, उनका मुख्य
उद्देश्य भौतिक समृध्दि के लिए साधना करना होता है। लेकिन पर्युषण पर्व के दौरान
लौकिक और भौतिक समृध्दि के लिए कोई साधना नहीं की जाती वरन आत्मकल्याण के लिए
साधना की जाती है और आठ दिन की पर्वाराधना के सार तत्व के रुप में जगत के समस्त
जीवों से क्षमापना की जाती है।
प्रश्न यह उठता है क्षमापना क्यों?
मनीषियों ने कहा है कि मनुष्य की उन्नति और पतन का कारण मनुष्य स्वयं होता है। मनुष्य
के अपने विचार ही उसे उन्नति की ओर ले जाते है और विचार ही पतन की मार्ग निर्मित
करते है। यदि विचारों पर काबू किया जाए तो पतन का मार्ग रुक सकता है। हमेशा से
मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी रही है दुसरों के प्रति द्वेश की भावना। जड़ वस्तु
(धन-दौलत) के प्रति राग मनुष्य की कमजोरी नहीं है। जड़ के प्रति जो राग होता है
उसे छोड़ना आसान होता है। पर दुसरे के प्रति द्वेश का त्याग करना आसान नहीं होता
है। आज मनुष्य करोड़ों का दान देने को तैयार है। मगर किसी भी व्यक्ति के प्रति
अंतर में द्वेश का भाव है, जो दुर्भावना मन में है, या जो आक्रोश हृदय में है उसे आसानी
से नहीं छोड़ता है। द्वेश भावना एक आत्म शल्य है।
शास्त्रों में कहा गया है कि जिस व्यक्ति के हृदय
में शल्य होता है। वह हृदय कभी परमात्म तत्व को प्राप्त नहीं कर सकता है। परमात्म
तत्व सदैव निर्मल हृदय में ही वास करता है। शल्य का अर्थ है कांटा । जिस तरह किसी
व्यक्ति के पैर में कांटा लगा हो तो वह दौड़ नहीं सकता है उसी तरह किसी के प्रति
अन्तर में द्वेश का भाव है तो कभी भी आत्म उन्नती का मार्ग नहीं खुल सकता है।
क्षमा भाव ही वह तत्व है जो अंतर के शल्य को मिटा सकता है और आत्म उन्नती का मार्ग
प्रशस्त कर सकता है।
जैन दर्शन में
कहा गया है कि जीवन में यदि जड़ पदार्थों का त्याग न भी करे तो मोक्ष का मार्ग खुल
सकता है। मगर मन में किसी के प्रति द्वेश का भाव है तो मनुष्य की मुक्ति संभव नहीं
है। किसी के प्रति द्वेश का भाव हमारे मन में आता है तो हमारी प्रसन्नता खो जाती
है। मन विचलित हो जाता है। हम गड़बड़ा जाते है। उदासी छाने लगती है। जो चीज मन को
उदास करे उसे मस्तिष्क में क्यों जगह दी जाए।
किसी ने कुछ कह
दिया हो या कर दिया हो तो उसे बार-बार स्मरण करके मन की
शांति भंग नहीं करना चाहिए। अपने मन के अनुकुल कार्य या व्यवहार न हो उस स्थिती
में किसी के भी प्रति मन में आए नकारात्मक विचारों को तत्काल भूलने का प्रयास
करना। यदि भूलने का प्रयास निश्फल हो रहा है, और क्रोध बढ़ भी रहा है तो कोई
विपरित कार्य उस व्यक्ति के प्रति करने या उसे कुछ बोलने से पहले मन को शांत करने
की पूरी कोशिश की जानी चाहिए। ताकि आवेश में कहीं कुछ ऐसा न हो जाए की जीवन भर वह
कार्य हमें पछतावा लगे। दिल और दिमाग की हार्डडिस्क से हमेशा नफरत पैदा करने वाले
विचारों को हटाने का प्रयास जारी रखना चाहिए।
पहली स्थिती में
किसी के भी कार्य या व्यवहार का सबसे पहला असर मन पर होता है। जीवन में जब किसी के
प्रति द्वेश का भाव उत्पन्न हो तो उसे वहीं रोक लेना जैसे आईने पर लगी धूल को
पोछते ही आईना साफ हो जाता है। उसी तरह मन पर लगी विचारों की धूल को स्व प्रेरणा
से पोछ कर उदारता का प्रयोग करना चाहिए। अबोला त्याग कर देना चाहिए।
यदि आत्ममुग्धता
के वशीभूत स्व प्रेरणा से हम उदारता नहीं दिखा पाए और मतभेद हो भी गये हो तो किसी
के कहने पर अपने मान-अपमान को त्यागकर क्षमायाचना कर लेना चाहिए। लेकिन कई बार ऐसा
होता है कि हम जिससे क्षमायाचना कर रहे है वह हमें क्षमा न भी करे। तो भी याचक भाव
रखकर क्षमायाचना करना चाहिए। याद रखें जो क्षमा मांग रहा है वह अपना शल्य खत्म कर
रहा है। उसके खाते से वैर भाव खत्म हो रहा है। जो मांगने पर भी क्षमा नहीं कर रहा
उसके खाते में बैर भाव यथावत रहेगा। जो याचक है वह आत्मोत्थान की ओर बढ़ जाएगा।
क्षमा मांगना और
देना दोनों स्थिती आत्म के कल्याण की कारक है इसीलिए जैन शास्त्रों में परस्पर
क्षमापना शब्द का प्रयोग किया गया है। और इस दौरान परस्पर कहना चाहिए “मिच्छामी
दुक्कड़म”। अर्थात- मैने जो भी आपके प्रति बुरा किया गया
है वो फल रहित हो। यह शब्द क्षमायाचक और क्षमाप्रदाता दोनों के आत्मोत्थान का मार्ग
प्रशस्त करता है। क्षमा मांगने वाला नीचा नहीं हो जाता और न ही क्षमा करने वाला ऊंचा।
क्षमापना दोनों को समान राह पर ले आती है। दोनों के हृदय के शल्य दूर हो कर दोनों
के हृदय निर्मल हो जाते है।
-संदीप सृजन
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कबीरदास के शब्दों में गुरु महिमा
संसार में कोई भी तत्व गुरु के
समान नहीं
गुरु को केवल परलोक तक पहुचाने वाला ही नहीं वरन
इहलौक याने वर्तमान को सुधार कर भविष्य बनाने वाला कहा गया है। भारतीय दर्शन में
गुरु को केवल एक व्यक्ति या पद नहीं माना वरन एक तत्व माना गया है जो अगर मन में
श्रद्धा और विश्वास के साथ स्थापित हो जाए तो इस संसार में शिष्य को अपने समान बना
देता है। यही कारण है कि सनातन परंपरा में गुरु को ईश्वर से भी ऊंचा स्थान दिया
गया है। इसीलिए भारतीय वांग्मय में कहा गया है –
गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो
महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।।
गुरु के महत्व को भारत के सभी धर्मों, परम्पराओं
और व्यवस्थाओ ने स्वीकार किया है। चुंकि भारत में ज्ञान और शिक्षा आदिकाल से ऋषि
परम्परा या संत परम्परा से समाज में आयी है। आदर्श जीवन जीने के जो सूत्र आमजन की
बोली और साधुक्कड़ी या खीचड़ी बोली में संत कबीरदास जी ने बताएँ थे वे उस समय भी
प्रासंगिक थे और आज तथा आने वाले काल में भी प्रासंगिक रहेंगे। कबीर रामानंद के
शिष्य थे पर वे निर्गुणी संत कहे जाते है। निर्गुणी परम्परा में गुरु ही सब कुछ
होते है। और गुरु के प्रति समर्पण ही जीवन का सार और लक्ष्य होता है। गुरु के
सम्मान में संस्कृत के उपर दिए श्लोक के करीब कबीरदासजी का एक दोहा बड़ा ही
प्रसिद्ध है।
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े , काके लागूं
पाय।
बलिहारी गुरु
आपने, गोविन्द दियो बताय।।
गुरु के प्रति एक अवधारणा जो जनमन में है वह यह
है कि गुरु अपने शिष्य को संसार में बहुमुल्य बनाने का सामर्थ रखता है। चाहे शिष्य
कैसा भी हो, लेकिन गुरु के सामर्थ पर एक दोहा कबीर दास जी कहते है-
गुरु पारस को अन्तरो,जानत हैं सब सन्त ।
वह लोहा कंचन करे, ये करि लेय महन्त ।।
अर्थात- गुरु में और पारस पत्थर में अन्तर है, पारस पत्थर तो लोहे को सोना ही
बनाता है, परन्तु गुरु अपने शिष्य को अपने समान बना देता है।
गुरु में वो शक्ति है कि जो उसका सानिध्य पाता है वह पारस पत्थर के स्पर्श से बनने
वाले सोने की तरह मुल्यवान नहीं बल्कि पारस पत्थर की तरह बेमोल हो सकता है।
गुरु किस तरह से शिष्य के दोषों को दूर करता है
और किस तरह से उसे संसार में मुल्यवान बनाता है, इस पर कबीर कहते है-
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है,गढ़ि –गढ़ि काढ़ै खोट ।
अन्तर हाथ सहार दे, बाहर मारे चोट ।।
अर्थात- गुरु कुम्हार है और शिष्य घड़े के समान है। जिस तरह घड़े को सुंदर और दोष
रहित बनाने के लिए कुम्हार कच्चे घड़े को भीतर से हाथ का सहार देकर, बाहर से चोट मारता है उसी तरह गुरु भी अपने अंतर में प्रेम और शिष्य के सामने
बाहरी कठोरता रखकर उसके दोषों को दूर करते है। शिष्य की बुराई को निकलते हैं। ताकि
वो आदर्श समाज का हिस्सा बन सके।
गुरु और शिष्य एक दुसरे से कैसे जुड़े रहते है, एक
आदर्श शिष्य कैसा हो इस बात को कबीर कुछ इस तरह से कहते है-
जो गुरु बसै बनारसी, शीष समुन्दर तीर ।
एक पलक बिखरे नहीं, जो गुण होय शरीर।।
अर्थात- यदि गुरु वाराणसी में निवास करे और शिष्य समुद्र के निकट हो, परन्तु शिष्य गुरु को एक क्षण के लिए भी भूले नहीं। शिष्य गुरु से कितनी
भी दूर क्यों न हो, वह उनके बताए हुए मार्ग पर ही चलता है।
सच्चा शिष्य वही है, जो गुरु के बताए हुए ज्ञान को कभी भूले
नहीं। यदि गुरु में कोई कमी रहती है तो भी वह केवल उनके गुणों को स्मरण करता रहे।
गुरु की महिमा पर बहुत कुछ लिखा गया, पर कबीर दास
जी ने जब ये दोहा लिख दिया तो सब कुछ इसमें समाहित हो गया। गुरु के सामने सब कुछ
छोटा है।
सब धरती कागज करूँ, लेखनी सब बनराय ।
सात समुद्र की मसि करूँ,गुरु गुण लिखा न जाय ।।
अर्थात- सारी पृथ्वी को कागज बना ले, सारे जंगलों को कलम बना ले, और सातों समुद्रों के पानी को स्याही बनाकर लिखने
लगे तो भी गुरु के गुणों पर लिख पाना संभव नहीं है। यहॉ कबीरदास जी ने जो तीन
उपमाएँ दी है वे संसार के विराट तत्व है। इनसे बड़ा संसार में कोई तत्व नहीं पर
गुरु के गुण के सामने ये भी छोटे पड़ेगे। इतनी गुरु की महिमा है।
और भी कईं दोहे और साखियों के माध्यम से कबीरदास
जी ने गुरु महिमा का वर्णन अपनी रचनाओं में किया है। गुरु की महिमा को स्वीकार
करने वालों के लिए शब्दों की नहीं, भाव की प्रधानता होती है। गुरु पूर्णिमा एक अवसर होता है,जब हम गुरु के प्रति सम्मान,सत्कार और अपनी तमाम
भावनाएँ उन्हें समर्पित करते हैं।
-संदीप सृजन
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सजग हो कर रोका जा सकता है आत्महत्या की प्रवृत्ति को। - संदीप सृजन
सुशांतसिंह यह नाम हर जुंबा पर है।
शायद जो लोग उस प्रतिभा सम्पन्न लड़के को पहले नहीं जानते थे। वे भी आत्महत्या के
बाद उसे जानने लगे। उसके काम की तारीफ करने लगे और आत्महत्या को घिनौना काम बताते
हुए दार्शनिक अंदाज में आत्महत्या को कायराना हरकत बता कर अपने संवेदनशील होने का
प्रमाण दे रहे है। धर्म शास्त्रों में आत्महत्या करने वाले को क्या कहा गया है। जो
आत्महत्या करता है उसका क्या होता है। ये तमाम बातें अफ़सोस भरे शब्दों में लोग
सोशल मीडिया पर और बातचीत में आपस में कर रहे है। संवेदना से भरे तमाम लोग बात तो
सही कर रहे है तमाम बातें और जुमलें अब सुशांतसिंह के लिए किसी काम के नहीं है। लेकिन
उन बातों को, तथ्यों को और स्थितियों को समझ कर हम थोड़ा भी ध्यान दे तो इनसे
भविष्य में आत्महत्या करने वाले को रोका जा सकता है।
सुशांत सिह का जीवन
कैसा था, कितनी प्रतिभा उनमें थी, कम उम्र में ही किस ऊंचाई पर वो पहुंचे यह सब
उनकी मौत के बाद तमाम टीवी चैनलों ने दिखाया और अपने अपने तर्क दे कर यह बताने की
कोशिश की कि सुशांत सिंह ने अपनी जीवन लीला क्यों खत्म करी। हर आत्महत्या के बाद
चर्चाओं का इतना नहीं होता। सब जगह चर्चा सुशांत सिंह की थी क्योंकि वे ग्लैमर की
दुनिया में थे, पर वे चर्चाएँ अप्रत्यक्ष रूप से मनुष्य समाज के एक पुराने सवाल का
जवाब दे रही थी। वो सवाल है-लोग क्यों आत्महत्या करते हैं?
सबसे ज्यादा आत्महत्याएं
भारत में होती है
शायद ये पढ़कर आप चौंक जाएंगे कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने दुनियाभर में होने
वाली आत्महत्याओं को लेकर एक रिपोर्ट जारी की है, जिसके मुताबिक दुनिया के तमाम देशों
में हर साल लगभग आठ लाख लोग आत्महत्या करते हैं, जिनमें से
लगभग 21 फीसदी आत्महत्याएं भारत में होती है। यानी दुनिया की
सबसे ज्यादा आत्महत्याएं भारत में होती है। देश में शायद ही कोई दिन ऐसा बीतता हो
जब देश के किसी न किसी इलाके से गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, कर्ज जैसी तमाम आर्थिक तथा अन्यान्य
सामाजिक परेशानियों से परेशान लोगों के आत्महत्या करने की खबरें न आती हों।
रिपोर्ट का एक चौंकाने वाला तथ्य यह भी है कि भारत में आत्महत्या करने वालों में बड़ी तादाद युवाओं की है, यानी जो उम्र उत्साह से लबरेज होने और सपने देखने की होती है उसी उम्र में लोग जीवन से पलायन कर जाते हैं। इस भयानक वास्तविकता की एक बड़ी वजह यह है कि पिछले कुछ दशकों में लोगों की उम्मीदें और अपेक्षाएं तेजी से बढ़ी हैं, लेकिन उसके सामने अवसर उतने नहीं बढ़े। दरअसल, उम्मीदों और यथार्थ के बीच बड़ा फर्क होता है। यही फर्क अक्सर आदमी को घोर अवसाद और निराशा की ओर ले जाता है। नवउदारीकृत अर्थव्यवस्था ने हमारे सामाजिक और पारिवारिक ढांचे को जिस तरह चोट पहुंचाई है उससे देश में आत्महत्या की बीमारी ने महामारी का रूप ले लिया है। ऐसा नहीं है कि लोग आत्महत्या सिर्फ आर्थिक परेशानियों के चलते ही करते हों, अन्य सामाजिक कारणों से भी लोग अपनी जान दे देते हैं।
आत्महत्या करने वालों की
मनोस्थिती
दुनिया की एक बड़ी आबादी कभी न कभी आत्महत्या करने के
बारे में सोच चुकी होती है। कुछ लोगों में आत्महत्या करने के विचार बड़े तीव्र
होते हैं और लंबे समय तक बने रहते है,
तो कुछ में ऐसे विचार क्षणिक होते हैं। कुछ समय बाद उन्हें हैरानी
होती है कि आख़िर वे ऐसा कैसे सोच सकते हैं। हालांकि आप किसी को देखकर तो यह नहीं
बता सकते कि इस व्यक्ति के मन में क्या चल रहा है इसलिए आमतौर पर आत्महत्या करने
वालों के मनोस्थिती की पहचान नहीं कर सकते। लेकिन कुछ मनोवैज्ञानिक बाहरी लक्षण
हैं, जो आत्महत्या करने की मनोस्थिति के बारे में थोड़ा-बहुत
आइडिया दे देते हैं।
जिनके मन में लगातार नकारात्मक विचार चलते रहते हैं
उनका आत्मविश्वास कम हो जाता है। वे अपने मनोभावों को व्यक्त करने नहीं कर पा रहे
हो। उनकी खानपान की आदतों में अचानक बड़ा बदलाव देखने मिलता है। ये लोग अपने
शारीरिक स्थिती को लेकर उदासीन हो जाते हैं। उन्हें फ़र्क़ नहीं पड़ता कि वे कैसे
दिख रहे हैं। एक महत्वपूर्ण बात जो आत्महत्या की प्रवृत्ति वालों में देखी जाती है
वह यह कि वे लोगों से कटने लगते हैं। सामाजिक और पारिवारिक लोगों से वे दुरियां
बनाने लगते है। और ख़ुद को नुक़सान पहुंचा सकते हैं। कई बार वे ख़ुद को छोटा-मोटा
नुक़सान पहुंचाते भी हैं।
आमतौर पर जिन लोगों में ख़ुद को समाप्त करने की भावना
आती है, उनका सोचना होता है कि ज़िंदा रहने का
कोई मतलब नहीं है। उन्हें जीवन दुख से भरा लगता है। वे ख़ुद को बेकार मानते हैं।
धीरे-धीरे उन्हें लगने लगता है कि उनके आसपास के लोग उन्हें पसंद नहीं करते है।
कोई उनसे प्यार नहीं करता है। वे महत्वहीन हैं। लोग उनके बिना बेहतर रह सकते हैं।
ऐसे लोग एकाकी होने लगते है और अपनी और अपनों की ज़िंदगी की बेहतरी का रास्ता अपने
जीवन की समाप्ति में ही देखते हैं। कभी-कभी लोग क्रोध, निराशा
और शर्मिंदगी से भरकर ऐसा क़दम उठाते हैं। चूंकि उनकी मनोस्थिति स्थिर नहीं होती
अत: ये विचार उनमें आते-जाते रहते हैं। कभी वे बिल्कुल अच्छे से रहने लगते हैं और
कभी फिर से अवसाद में चले जाते हैं।
आत्महत्या को प्रेरित करती परिस्थितियां
यह बता पाना संभव नहीं है कि कौन-सा व्यक्ति किस बात को
लेकर इतना बड़ा क़दम उठा सकता है। पर कुछ परिस्थितियां आत्महत्या को लेकर व्यक्ति
को उस ओर प्रेरित करती है। जिन लोगों को जीवन में असफलता का सामना करना पड़ता है
वे दुनिया का सामना करने से डरते हैं और आत्महत्या की ओर क़दम बढ़ाते हैं। जिन
लोगों के परिवार या दोस्तों में किसी ने आत्महत्या का रास्ता अपनाया होता है वे भी
यह राह चुनने को प्रेरित होते हैं। जो लोग असल ज़िंदगी में लोगों से मिलने-जुलने
के बजाय आभासी दुनिया यानी वर्चुअल वर्ल्ड में अधिक समय बिताते हैं, वे भी इस मानसिकता से गुज़रते हैं।
आभासी दुनिया का असर ख़तरनाक हो सकता है। जो लोग समाज द्वारा ठुकरा दिए गए होते
हैं, उनमें भी ख़ुद को ख़त्म करने की प्रवृत्ति होती है। जिन
लोगों को कोई असाध्य बीमारी हो जाती है, वे भी निराशा के दौर
में यह क़दम उठा लेते हैं। शराब और ड्रग्स जैसे नशे के आदी लोग भी आत्महत्या करने
की दृष्टि से काफ़ी संवेदनशील होते हैं। कभी-कभी आर्थिक और भावनात्मक क्षति भी
लोगों को इस मुक़ाम तक पहुंचा देती है।
समाज और परिवार की जिम्मेदारी
आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति एक तरह से सामाजिक
दुर्घटना है। आज व्यक्ति अपने जीवन की कड़वी सच्चाइयों से मुंह चुरा रहा है और
अपने को हताशा और असंतोष से भर रहा है। आत्महत्या का समाजशास्त्र बताता है कि
व्यक्ति में हताशा की शुरुआत तनाव से होती है जो उसे खुदकुशी तक ले जाती है। आज
इंसान के चारों तरफ भीड़ तो बहुत बढ़ गई है लेकिन इस भीड़ में व्यक्ति बिल्कुल अकेला
खड़ा है।
हम जिस समाज में रहते है उसमे अगर अचानक या धीरे-धीरे
किसी पारिवारिक सदस्य, मित्र में इस तरह के बदलाव दिखते है तो हमें सचेत हो कर उसे
भावनात्मक सहारा देना चाहिए। ताकि वो अवसाद की खाई से बाहर निकलकर सोच सके।
नकारात्मक सोच को बाहर निकालने का रास्ता दिखाएं। उन लोगों की पहचान करें, जिनसे मिलकर, जिनसे
बात कर वो नेगेटिव फ़ील करने लगते हो। ऐसे लोगों को उनकी ज़िंदगी से दूर करे। उन
लोगों बीच रखें जो उनको हंसाते हों।आपको अच्छा महसूस कराते हों। आगे बढ़ने के लिए
प्रेरित करते हों।
अस्त-व्यस्त ज़िंदगी और ग़लत जीवनशैली पर कुछ टीका
टिप्पणी करने के बजाए उनको प्रेम से व्यवस्थित रहने, खाने-पीने के लिए उत्साह
जगाए। नियमित रूप से कुछ समय उनके साथ व्यायाम या योग करते हुए बिताएं। साथ ही
ध्यान और मैडिटेशन करवाए जिससे मानसिक स्थिती में भी एक चमत्कारिक लाभ होता है।
सबसे अहम् बात ऐसे लोगों को अकेले तो भूलकर भी न रहने दे। परिजन या
दोस्त संग रहे। उनके संग यात्रा करे। नई जगह पर जाने से थोड़ा तरोताज़ा महसूस
करेंगे। सकारात्मक कहानियां और प्रेरक बातें पढ़वाए। यदि आप किसी परिचित से अपने
इन मनोभावों को व्यक्त करने में झिझक रहे हों तो किसी मनोचिकित्सक से मिलें। याद
रखें, ज़िंदगी से ज़्यादा महत्वपूर्ण कुछ और नहीं होता। हमारे
यहॉ मानसिक स्वास्थ्य को लेकर कम ध्यान दिया जाता है और पूरी दुनिया में मानसिक
रूप से सेहतमंद बने रहने के लिए कोई योजना नहीं है। जो चिंता का विषय है।
भारत जैसे पारंपरिक रूप से मजबूत तथा परिवार के
भावनात्मक ताने-बाने से युक्त धार्मिक और आध्यात्मिक देश में भी खुदकुशी की चाह
लोगों में जीवन जीने के अदम्य साहस को कमजोर कर रही है। जबकि विश्व में भारतीयों
के बारे में कहा जाता है कि हर विपरीत से विपरीत स्थितियों में जीवित रहने का हुनर
इनके स्वभाव और संस्कार में है और इसी वजह से भारतीय सभ्यता और संस्कृति सदियों से
तमाम आघातों को सहते हुए कायम है। यदी कोई आपका अपना जीवन से टूट रहा है तो उसे सम्हालें। उसकी मानसिक
स्थिती को बदलने का हर संभव प्रयास करे। उसे मानसिक संबल दे ताकि भविष्य में कोई
सुशांत सिंह जैसी प्रतिभा, कोई विद्यार्थी, कोई मजदूर या किसान इस दुस्साहस की ओर
कदम न बढ़ाए। और हम फिर वही प्रश्न न दोहराए।
-संदीप सृजन
संपादक-शाश्वत सृजन
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