व्यंग्य और हास्य का बेहतरीन संतुलनः डेमोक्रेसी स्वाहा




*कृति- डेमोक्रेसी स्वाहा
*लेखक- सौरभ जैन
*प्रकाशक- भावना प्रकाशन, दिल्ली
*पृष्ठ-128
*मूल्य-195/-
बहुत छोटी उम्र में व्यंग्य के क्षेत्र में अपनी पैठ बना चुके सौरभ जैन का हाल ही में पहला व्यंग्य संग्रह डेमोक्रेसी स्वाहा भावना प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। 52 व्यंग्य इस संग्रह में प्रकाशित है, जिनमें से अधिकांश विभिन्न दैनिक अखबारों के व्यंग्य का कालमों में प्रकाशित हुए हैं, कुछ अप्रकाशित भी हैं।
जैसा की नाम से ही लगता है कि राजनीति इस संग्रह का केन्द्र बिन्दू है। राजनैतिक विद्रुपताओं पर सौरभ ने बहुत अच्छे से अपनी कलम चलाई है। व्यंग्य कोई नई विधा नहीं है, लेकिन वर्तमान व्यंग्य विधा के दो प्रमुख स्तंभ शरद जोशी और हरिशंकर परसाई माने जाते हैं, और पत्र-पत्रिकाओं तथा अखबारों में जो व्यंग्य कॉलम प्रकाशित हो रहे हैं वह इन्हीं दो व्यंग्य पुरोधाओं की ही देन है। सौरभ के व्यंग्य उनको शरद जोशी की परम्परा में लाकर खड़ा करते है। क्योंकि उनके व्यंग्य लघु और संतुलित है साथ ही सामयिक भी है। लेखन में व्यंग्य के साथ हास्य का पुट भी है और दोनों का संतुलन भी बेहतरीन है।
सौरभ जब लिखते हैं कि सड़क पर जब किसी गड्ढे का जन्म होता है तो सड़क की बहन और गड्ढे की मौसी बरखा रानी झूम कर उसे पानी से लबालब भर देती है। यह जलकुंड सूक्ष्मजीवों के लिए समुद्र की तरह होता है, गड्ढे मच्छरों की जन्मस्थली होते हैं, एक प्रकार से गड्ढे चिकित्सकों को रोजगार प्रदान करने का साधन भी है। तो व्यंग्य गुदगुदी करता है, साथ ही उस व्यवस्था पर भी प्रहार करता है जो आम आदमी की पीड़ा है।


और जब वो लिखते हैं कि कुपोषण को दूर करने के तमाम प्रयास विफल होने पर सरकार के लिए अब आवश्यक है कि पोषण आहार में साबुन का वितरण किया जाना चाहिए क्योंकि मलाई, केसर, हल्दी, चंदन जैसे तत्व नहाने के स्थान पर खाने में अधिक उपयुक्त रहेंगे। तो भ्रमित करने वाले व्यवस्था और विज्ञापनों को चेलेंज करते है। कि सरकार की आंखों के सामने देश की जनता को मूर्ख बनाया जा रहा है। और सरकारी अमला मौन देख रहा है।
अखबार अब लोकतंत्र के जवाबदार स्तंभ नहीं रहे, ऐसे में सौरभ लिखते हैं कि अखबारों को उठाकर देखा जाए तो पेपर में ऊपर न्यूज़ होती है कि गर्मी से हाल बेहाल और ठीक नीचे ए सी पर भारी डिस्काउंट का विज्ञापन दिया रहता है। अब यह तो तंबाखू को बेचकर कैंसर के इलाज का मार्गदर्शन देने वाला युग है।


सौरभ लोकतंत्र की सबसे लच्चर हो चुकी व्यवस्था जिसे डेमोक्रेसी कहा जाता है। उस पर खुल कर लिखते हैं कि देश के विकास में जेलों का जो योगदान है, उसके मापने का यंत्र अब तक विकसित नहीं हो सका है। आजादी के काल से ही जेल में जाने का चलन प्रचलन में है। तब अंग्रेजों के अन्याय के विरुद्ध तथा जनता के हित के लिए नेता जेलों में जाया करते थे। लेकिन आज के नेता स्वयं का इतना हित कर लेते हैं कि उन्हें जेल जाने की नौबत आन पड़ती है। जेल में रहकर भी वे विकास पुरुष कहलाते हैं कुछ एक तो अंदर रहकर ही चुनाव जीत जाते हैं।
मोबाइल की लत पर वे चुटकी लेने से नहीं चुकते और लिखते है सेल्फी नामक संक्रामक रोग इसी तरह फैलता रहा तो कल को लोग भगवान के आगे ऐसी मन्नतें लेकर खड़े मिलेंगे, हे! प्रभु मेरी मुराद पूरी हो तो हो गई तो मैं 3 दिन तक कोई सेल्फी नहीं लूंगा। मतलब अन्न-जल त्याग वाली तपस्या डिजिटलीकरण के दौर में इस रूप में रूपांतरित होना तय है।"
असली डेमोक्रेसी होती है अफसर का तबादला करवाना लेकिन कोई अफरस खुद तबादला करवाना चाहे तो उपाय बताते हुए सौरभ लिखते है यदि किसी अधिकारी को अपना तबादला करवाना है तो उसे अपना काम ईमानदारी से करना प्रारंभ कर देना चाहिए आप ईमानदारी दिखाइए वे तबादला थामा देंगे।
डेमोक्रेसी स्वाहा के 52 व्यंग्यों में कोई भी व्यंग्य कथ्य और तथ्य के मामले में कमजोर नहीं लगता, हर व्यंग्य कुछ न कुछ कहता है। संग्रह के सभी व्यंग्य मध्यम आकार के है जो पाठकों को बोरियत महसूस नहीं होने देते है। और अपनी बात भी पूरी तरह से कह रहे हैं। 25 बसंत के पहले किसी मंझे हुए लेखक जैसा व्यंग्य संग्रह एक बड़े प्रकाशन से आना इस बात की पुष्टि करता है कि सौरभ में व्यंग्य के क्षेत्र में अपार संभावना दिखाई देती है। इस कृति के लिए सौरभ जैन बधाई के पात्र है। अशेष शुभकामनाएं...।
-संदीप सृजन
संपादक- शाश्वत सृजन
ए-99 वी.डी. मार्केट, उज्जैन 456006
मो. 09406649733


युवाओं का मार्गदर्शन करती कृति- जीना इसी का नाम है



*कृति- जीना इसी का नाम है
*लेखक- राजकुमार जैन राजन
*प्रकाशक- अयन प्रकाशन दिल्ली
*पृष्ठ-104 (सजील्द)
*मूल्य-200/-
वर्तमान में बाल साहित्य उन्नयन के लिए एक नाम देशभर में जाना पहचाना है, वह है श्री राजकुमार जैन राजन का, जो कि तन-मन और धन तीनों तरह से बाल साहित्य के लेखन, प्रकाशन और निःशुल्क वितरण के क्षेत्र में अपना अहम योगदान दे रहे हैं। बाल साहित्य के अलावा भी उनका अध्ययन और लेखन अन्य विषयों पर भी बहुत गहन रहा है, तीन दशक से भी अधिक समय से राजन जी संपादन के कार्य से जुड़े हुए हैं, कई सामाजिक, साहित्यिक पत्रिकाओं का अपने स्तर पर संपादन कर चुके हैं साथ ही कई महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं के विशेषांकों का संपादन भी आपने किया है। राजन जी के बाल साहित्य से इतर हुए रचनात्मक और प्रभावी लेखन का एक संकलन हाल ही में अयन प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है जीना इसी का नाम है ।
यह संकलन उनके द्वारा लिखे हुए संपादकीय लेखों का संकलन है।यह संकलन उनके अनुभव का पुलिंदा है जिसमें केवल नवनीत है। छाछ जैसा कुछ भी नहीं। इस कृति में उनके लिखे 29 लेख शामिल है, जो कि प्रकाशन के समय तो पाठकों की पसंद रहे ही है। लेकिन आज भी उनकी प्रासंगिकता कम नहीं होती है, पुस्तक का पहला लेख अपने आप में महत्वपूर्ण है पहले स्वयं का निर्माण करें शीर्षक से लिखे इस लेख में वे लिखते हैं- वर्तमान युग नैतिक दुर्भिक्ष का युग है जीवन में नैतिक और चारित्रिक मूल्य बिखरते जा रहे हैं, नष्ट होते जा रहे हैं, स्वार्थपरायणता और लोभवृत्ति ने मानव को इतना निकृष्ट बना दिया है कि नीति, सत्य, प्रामाणिकता, ईमानदारी, सदाचरण जैसे गुण छुटते जा रहे हैं।
वही दो अनुच्छेदों के बाद इसी लेख में वे लिखते हैं कि- आज राष्ट्र में चारों ओर आध्यात्मिक जागृति और नैतिक उत्थान के साथ समाज निर्माण और राष्ट्र निर्माण की चर्चा है निर्माण भले ही किसी भी स्तर पर क्यों न हो वह स्वागत योग्य है। जो कि अनैतिकता के बीच नैतिक संस्कारों की पैरवी है। अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने का एक सफल प्रयास है। प्रकृति के माध्यम से भी इस लेख में उन्होंने बहुत कुछ कहा है।
जीवन कितना है यह हम सब जानते हैं, पर कैसा हो यह नहीं शायद इसीलिए राजनजी लिखते हैं जीवन की समग्रता के बारे में सोचें इस लेख में बहुत कुछ वह लिखा गया है जो आज जेएनयू में घटित हो रहा है- इतनी शिक्षा के बावजूद आज समाज में हिंसा और अशांति बढ़ती जा रही है। उग्रवाद और आतंकवाद बढ़ रहा है इसका कारण क्यों नहीं खोजा जाता? उनकी चिंता सही भी है। आगे वे लिखते है- अतीत में भी अच्छाइयां और बुराइयां थी, लेकिन वह अच्छाइयों पर हावी नहीं थी। बुरे लोग कृष्ण के समय में भी थे और महावीर के समय में भी थे लेकिन इसका अनुपात में असंतुलन में नहीं था, जैसे-जैसे उपभोक्तावाद बढ़ा तो बुराई के रूप में हिंसा और अपराध भी बढ़े। भ्रष्टाचार जैसी बुराई भी इसी उपभोक्तावाद की देन है । जिस समय यह लेख लिखा गया था उस समय से आज की स्थिती और बद्तर है।


इस पुस्तक के अच्छे लेखों में नारी ने विकास के नए आयाम छुआ है को मानता हूँ। जिस तरह पौराणिक नारी और वर्तमान की नारी पर अच्छी कलम राजनजी ने चलाई है वे लिखते है- नारी के विकास के लिए चार तत्व होते हैं शिक्षा, दृढ़ इच्छाशक्ति अर्थात संभल होना,शक्ति अर्थात सबल होना,स्वावलंबी और स्वतंत्रता अर्थात छोटे-छोटे निर्णय लेने की क्षमता। इन चारों तत्वों से परिपूर्ण नारी परिवार का ही नहीं स्वच्छ समाज का भी निर्माण कर सकेगी।
पारिवारिक विघटन के दौर में लेख रिश्तो को डिस्पोजल होने से बचाएं भी प्रासंगिक बन पड़ा है। अन्य लेख जैसे व्यर्थ को दे अर्थ, कोशिश करने वालों की हार नहीं होती, समस्या की मिट्टी में समाधान का अंकुर फूटता है, व्यक्ति अपने जीवन का स्वयं वास्तु शिल्पी है मोटिवेशन करते है। अधिकांश लेख इसी शैली के है। जो कि समय की मांग के साथ अनिवार्य भी है। अन्य लेखों में पुस्तक पढ़ने और संरक्षण के उपर दो लेख तथा राष्ट्रीयता पर केन्द्रीत तीन लेख, मातृभाषा पर एक लेख के साथ ही अन्य विषयों पर है जो आदर्श समाज के लिए और हमारी नई पौध के लिए बेहद जरुरी है।
पुस्तक का प्रकाशन आकर्षक है वहीं सजा-सज्जा भी सुंदर है लेकिन एक बात की कमी इस कृति में खलती है। जो लेख राजन जी ने लगभग 2 से 3 दशक पूर्व लिखे है वह तब से लेकर आजतक भी प्रासंगिक हैं, इसलिए उन लेखों के अंत में पत्रिका का नाम और प्रकाशन वर्ष भी दिया जाता तो ज्यादा अच्छा रहता ताकि पता चल सके कि जो समस्याएं या जो स्थितियां दो-तीन दशक पूर्व समाज में थी आज भी है और भविष्य उनके निराकरण की राह देख रहा है। साथ ही प्रुफ पर भी थोड़ा ध्यान दिया जाना जरुरी था।
चूंकि राजनजी बाल साहित्य के सृजन और प्रकाशन के विशेष पक्षधर है ऐसे में उनकी यह कृति बच्चे से युवा होते देश के भविष्य के मार्गदर्शन का काम करेंगी। एक अच्छी पुस्तक समाज को देने के लिए राजनजी बधाई के पात्र है।
*समीक्षक
 संदीप सृजन
 संपादक- शाश्वत सृजन
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व्यंग्य- प्रेम दिवस पर प्रेमियों से आव्हान




मैं प्रेमी हूँ,इससे समाज वालों के पेट में दर्द क्यों होता है। दर्द होता है तो हो मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आखिर प्रेम भी तो ईश्वर का दिया गया उपहार है । रामायण, महाभारत के काल से आज तक प्रेम भी मृत्यू की तरह शाश्वत है। पर ये कटू सत्य है की जमाने को किसी का प्यार करना सुहाता नहीं है।
प्रेम पर बड़े बड़े ग्रंथ लिखे गये, कितनी ही कविताएँ लिखी गई, लग भग सारी फिल्में प्रेम पर ही बनी। कई लोगों ने प्रेक्टिकल करके भी जीवनी लिखी। लेकिन समाज में आज भी प्रेम को जायज और नाजायज दो अलग -अलग दृष्टि से देखा जाता है।प्रेम जब एक शब्द है तो दृष्टि दो क्योंडबल तो उनको दिखता है जिनकी दृष्टि में दोष होता है। महापुरुषों ने कहा है दृष्टि बदलों सृष्टि बदल जाएगी।
प्रेम हर कोई करता है पर पाता भी है ये कहना थोड़ा मुश्किल जरुर है पर असंभव नहीं । सियासत और महोब्बत में सब जायज है ये सूत्र जिसने रट्टा लगा के जेहन में उतार लिया उसके प्रेम में सफल होने की संभावना ज्यादा होती है। आज मै निःसंकोच प्रेमियों के हक में बात करुंगा। क्योंकि प्रेम का त्यौहार है और हर कोई प्रेमी है। कोई खुल्लम-खुल्ला तो कोई दबे छुपे। प्रेमियों को समाज ने सदैव हैय दृष्टि से देखा है। समाज तो ठीक सरकार ने भी इनके लिए बजट में कोई प्रावधान नहीं किया। कोई आयोग प्रेमियों के हित में नहीं बनाया ।
प्रेम एक तरफा हो तो यह बेदर्द समाज प्रेमी को अंधा तक कह देता है। लेकिन सरकार का कोई नीति नहीं की प्रेमी को अंधा कहने वाले को सजा दी जाए। देश का बहुत बड़ा वर्ग प्रेमी वर्ग है इसके बावजूद कोई दल प्रेमियों की परवाह नहीं करता है। हर जगह प्रेमी उपेक्षा के शिकार है। प्रेमी अपने प्रेम को पाने के लिए क्या क्या नहीं करता यहॉ तक की जान की बाजी भी लगाने को हरदम तैयार रहता है। भाग जाना और भगा ले जाने वाली परम्परा तो महाभारत काल में श्रीकृष्ण और रुकमणि के समय से आज तक जारी है लेकिन इसके लिए बाहुबल का सामर्थ चाहिए नहीं तो हाथ पैर बोनस मे तुड़वाने पड़ जाते है। 
अब प्रेमियों को भी अपना राजनैतिक वर्चस्व बनाना चाहिए। समाज और सियासत उसी की होती है जो एक जूट होते है। जो एक जूट नहीं है वे केवल जूते खाते है। देश का कोई श्रेत्र ऐसा नहीं हो जहॉ प्रेमियों का बोल बाला न हो। हर जगह प्रेमियो को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। हर विभाग में प्रेमियों के लिए आरक्षण होना चाहिए। देश में जब सबके विकास की बात चल रही है तो प्रेमियों का भी विकास होना चाहिए।
प्रेमियों को मान्यता प्राप्त राजनैतिक दल के गठन की ओर अग्रसर होना पड़ेगा। जो एनजीओ पीछे के रास्तों से प्रेमियों की मदद करते आए है उनकों सामने के रास्ते से प्रेमियों को मिलवाने, घर वालों को मनाने और न माने तो प्रेमियों को भगवाने की व्यवस्था करना चाहिए। ताकि समाज में और देश में उन एनजीओ का नाम प्रेम के क्षेत्र में सम्मान से लिया जा सके और भविष्य में राष्ट्रपति पुरस्कार के लिए उनकी अनुशंसा प्रेमियों द्वारा की जा सके।  
सभ्य समाज और प्रेमियों की स्थिती हमेशा से देव दानव की तरह रही है। दानवों को देवता फूटी आंख नहीं सुहाते है। आज भी वही स्थिती प्रेमियो और समाज की है। दोनों के बीच परम्परागत छत्तीस का आंकड़ा आज भी बना हुआ है। देवासुर संग्राम की तरह ही प्रेमियों को अपने अधिकार पाने के लिए इतिहास के उदाहरणों की पीठ पर,परम्पराओं की रस्सी से, विचारों का पर्वत रख कर समाज के साथ मथना होगा और प्रेमामृत का पान हर इंसान को करवाना होगा तभी प्रेमियों का साम्राज्य बना रह सकेगा। वरना अपनी पहचान भी खो बैठेंगे प्रेमी, प्रेमियों जागों अपनी शक्ति का प्रदर्शन करो।
आज प्रेम दिवस पर मैं सभी प्रेमियों से आव्हान करता हूँ समाज तुम्हारा बहिष्कार करे तुम उससे पहले समाज का बहिष्कार कर दो और अपने प्रेमी या प्रेमिका के साथ प्रेम समाज में शामिल हो जाओ। काम देव और रति को अपने आराध्य के रूप में प्रतिष्ठित करवाओ। और प्रेम नगर की स्थापना करो।
-संदीप सृजन
संपादक- शाश्वत सृजन
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लघु कथा-बड़े लेखक और बड़े मेले



पुस्तक मेले की भीड़ में अपनी पहली किताब का विमोचन हो यह इच्छा पहले ही नहीं थी । डर लग रहा था बड़े पुस्तक मेले और बड़े लेखकों के बीच कैसे माहौल मिलेगा। लेकिन प्रकाशक की इच्छा थी की कुछ बड़े हाथों से गॉव के नये छोरे की पहली किताब का विमोचन करवाए। ताकि हाथों-हाथ कुछ किताबें बिक जाए। कुछ किताबें खरीद कर नया लेखक बड़े लेखकों को भेट कर दे, ताकि प्रकाशन का मुनाफा उसकी जेब में आ जाए। क्योंकि मूल रकम तो वो नये नवेले लेखक से पहले ही ले चूका था।
आखिर प्रकाशक ने पुस्तक मेले का एक दिन नये लेखक के नाम किया और नामचिन लेखकों के एक दल को विमोचन के लिए राजी कर लिया बदले में कुछ किताबें मुफ्त उस दल के लोगों को देना तय हुआ । ठीक समय से दो घंटे देरी से हंसी-ठिठोली करता नामचिन लेखकों का दल प्रकाशक के स्टॉल पर पहुंचा, जहॉ बेचारा नया लेखक सहमा-सहमा नाश्ता और मिठाई लिए उनका इंतजार कर रहा था । प्रकाशक के साथ लेखक ने दल का स्वागत किया और बिना किसी औपचारिकता के सीधे-सीधे उनके हाथों में एक-एक किताब पकड़ा दी। अलग-अलग एंगल से फोटो लिए गये। प्रकाशक खुश हो गया फोटो सोशल मिडिया पर तत्काल डाल दिए । सबने जम कर नाश्ता किया, मिठाई खाई लेकिन न किसी ने उस नये लेखक की किताब को अलटा-पलटा और न ही कोई टिप्पणी की और तो और बधाई तक भी नही दी। बेचारा नया लेखक अपना सा मुंह बनाए सोच रहा था क्या बड़े लेखक और बड़े मेले ऐसे होते है ?

-संदीप सृजन
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