कबीर जयंती विशेष -
सामाजिक क्रांति के अग्रदूत संत कबीरदासजी
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इस धरती को संस्कृत में "बहुरत्ना वसुंधरा " कहा गया है ।कई रत्न को यह धरती धारण किये हुए है, कई महापुरुषो की कर्म स्थली बनी है यह धरती ।कई सौ सालों में कोई एक महापुरुष ही धरती पर जन्म लेता है जो समाज में अलग राह बनाकर सर्वोपरि स्थान हासिल करता है। समाज में अपने हित को अलग रखकर समाज के लिए काम करने वाले विरले ही होते हैं । हमारे देश में ऐसे कई कवि, ऋषि, मुनि, महापुरुष आदि हुए हैं जिन्होंने अपना सारा जीवन समाज कल्याण के लिए अर्पित कर दिया. ऐसे ही एक महापुरुष हुए हैं संत कबीरदास जी जिन्हे सामाजिक क्रांति का अग्रदूत कहा जाना चाहिए ।
संत कबीरदास जी भक्ति आन्दोलन के एक उच्च कोटि के कवि, समाज सुधारक एवं भक्त माने जाते हैं ।समाज के कल्याण के लिए कबीर ने अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया संत रामानंद के बारह शिष्यों में कबीर बिरले थे जिन्होंने गुरु से दीक्षा लेकर अपना मार्ग अलग ही बनाया और संतों में वे शिरोमणि हो गये ।
जेष्ट शुक्ल पूर्णिमा संवत् 1455 (1398ईसवी) को जन्मे एक ही ईश्वर में विश्वास रखने वाले कबीर के बारे में कई धारणाएं हैं ।उनके जन्म से लेकर मृत्यु तक मतभेद ही मतभेद हैं । जिस समय कबीर का जन्म हुआ था उस समय देश की स्थिति बेहद गंभीर थी। जहां एक तरफ मुसलमान शासक अपनी मर्जी के काम करते थे वहीं हिंदुओं को धार्मिक कर्म-काण्डों से ही फुरसत नहीं थी।जनता में भक्ति-भावनाओं का सर्वथा अभाव था। पंडितों के पाखंडपूर्ण वचन समाज में फैले थे।ऐसे समय मे संत कबीर ने समाज के कल्याण के लिए अपनी वाणी का प्रयोग किया । कबीरदास ने बोलचाल की भाषा का ही प्रयोग किया है। भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था ।कबीर ने शास्त्रीय भाषा का अध्ययन नहीं किया था, फिर भी उनकी भाषा में परम्परा से चली आई विशेषताएं विध्यमान थी । संत कबीरदास ने अपने दोहों के माध्यम से जनता में अपनी आवाज पहुंचाने के बेहतरीन कोशिश की ।उनके दोहे लोकभाषा में होते थे और इन्हें समझना बेहद आसान होता था। कबीर के दोहे में जो मर्म वह किसी की भी जिंदगी पल में बदल सकते है ।
मुख से नाम रटा करैं, निस दिन साधुन संग ।
कहु धौं कौन कुफेर तें, नाहीं लागत रंग ।।
साधुओं के साथ नियमित संगत करने और रात दिन भगवान का नाम जाप करते हुए भी उसका रंग इसलिये नहीं चढ़ता क्योंकि आदमी अपने अंदर के विकारों से मुक्त नहीं हो पाता।
साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाहि।
धन का भूखा जी फिरै, सो तो साधू नाही ।।
कबीरदास जीं कहते हैं कि संतजन तो भाव के भूखे होते हैं, और धन का लोभ उनको नहीं होता । जो धन का भूखा बनकर घूमता है वह तो साधू हो ही नहीं सकता ।
जैसा भोजन खाइये , तैसा ही मन होय।
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जैसा भोजन करोगे, वैसा ही मन का निर्माण होगा और जैसा जल पियोगे वैसी ही वाणी होगी अर्थात शुद्ध-सात्विक आहार तथा पवित्र जल से मन और वाणी पवित्र होते हैं इसी प्रकार जो जैसी संगति करता है वैसा ही बन जाता है।
कबीरदास जी के कई दोहे ऐसे है जो वर्तमान में लोकोक्ति या कहावत बन चुके है और जन जन की जुबान पर चढे हुए है जिनका विश्लेषण स्वतः ही हो जाता है।
माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोय।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय॥
माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर ।
कर का मन का डारि दे, मन का मनका फेर॥
तिनका कबहुं ना निंदए, जो पांव तले होय।
कबहुं उड़ अंखियन पड़े, पीर घनेरी होय।।
गुरु गोविंद दोऊं खड़े, काके लागूं पांय।
बलिहारी गुरु आपकी, गोविंद दियो बताय॥
साईं इतना दीजिए, जा मे कुटुम समाय।
मैं भी भूखा न रहूं, साधु ना भूखा जाय॥
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय॥
कबीरा ते नर अंध है, गुरु को कहते और।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर॥
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर।
आशा तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर॥
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय।
हीरा जनम अमोल है, कोड़ी बदली जाय॥
दुःख में सुमिरन सब करें सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे तो दुःख काहे होय॥
बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर॥
उठा बगुला प्रेम का, तिनका चढ़ा अकास।
तिनका तिनके से मिला ,तिन का तिन के पास॥
सात समंदर की मसि करौं ,लेखनि सब बनाई।
धरती सब कागद करौं ,हरि गुण लिखा न जाई॥
हिन्दी साहित्य के हज़ारों वर्षों के इतिहास में कबीरदास जी जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक उत्पन्न नहीं हुआ।महिमा में यह व्यक्तित्व केवल एक ही प्रतिद्वन्द्वी जानता है, तुलसीदासजी परन्तु तुलसी और कबीर के व्यक्तित्व में बड़ा अन्तर था. यद्यपि दोनों ही भक्त थे, परन्तु दोनों स्वभाव, संस्कार और दृष्टिकोण में एकदम भिन्न थे. मस्ती, फ़क्कड़ाना स्वभाव और सबकुछ को झाड़–फटकार कर चल देने वाले तेज़ ने कबीर को हिन्दी–साहित्य का अद्वितीय व्यक्ति बना दिया है।कबीरदासजी एक जबरदस्त क्रान्तिकारी पुरुष थे.
जन्म के बाद कबीरदास जी की मृत्यु पर भी काफी मतभेद हैं।अगहन शुक्ल 11संवत् 1557 को कबीरदास जी ने मगहर में देह त्याग किया था और उनकी मृत्यु के बाद हिंदुओं और मुस्लिमों में उनके शव को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया था। हिन्दू कहते थे कि उनका अंतिम संस्कार हिन्दू रीति से होना चाहिए और मुस्लिम कहते थे कि मुस्लिम रीति से हो।इसी विवाद के दौरान जब शव से चादर हटाई गई तो वहां शव की जगह फूल मिले जिसे हिंदुओं और मुस्लिमों ने आपस में बांटकर उन फूलों का अपने अपने धर्म के अनुसार अंतिम संस्कार किया।
आज हमारे बीच कबीरदासजी नहीं हैं लेकिन उनकी रचनाओं ने हमें जीने का नया नजरिया दिया है।ऐसी मान्यता है कि अगर कोई व्यक्ति कबीर के दोहे के अनुसार अपनी जिंदगी को आगे बढ़ाता है तो निश्चय ही वह एक सफल पुरुष बन सकता है ।
@ संदीप सृजन
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संदीप सृजन
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