*कृति- नदिया का संगीत
*लेखक- टीकम चन्दर ढोडरिया
*प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, जयपुर
*पृष्ठ- 80
*मूल्य-100/-
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सुचिता की मूरत नदी, गरिमा की पहचान।
पहने हैं निज- देह पर, लहरों का परिधान।।
नदिया पर बूंदे गिरीं, कल जब मेरे गाँव।
मैं समझा तुम आ गयीं, पायल बांधे पाँव।।
वही आज की नदियों
की बदतर स्थिति पर भी लिखने से नहीं चूकते हैं और नदियों के दर्द को इन शब्दों में
कहते हैं-
अमरित-सम था जल कभी, आती आज सड़ांध।
क्या से अब क्या कर दिया, है मानव स्वार्थांध।।
कितना मैला हो गया, आज नदी का नीर।
खदबद अब करने लगी, देखो उसकी पीर।।
दोहा छंद की विशेषता है कि इस छंद में बात सहज और सरल शब्दों में कही जा सकती है। जैसा नदी और नारी पर समानता बताते हुए दोहे में ढोडरियाजी ने कही है।
नदिया नारी का रहा, सदा एक व्यवहार।
औरों के सुख हेतु वह, सहती कष्ट अपार।।
नदी की बात जब
कभी की जाती है तो जंगल की बात होना स्वाभाविक है, अगले विषय के रूप में ढोडरियाजी
वनों की पीड़ा को अपने शब्द देते हैं-
ज्यों-ज्यों सभ्य हुआ सखे, बढ़ी मनुज की भूख।
गुमसुम से रहने लगे, अब जंगल के रूख।।
शहरी सभ्यता के
चलते वनों का जो हाल हमने किया है उस पर भी ढोडरियाजी लिखते हैं-
सिसक रही हैं डालियाँ, लगे काँपने पात।
जंगल में जब से घुसी, शहरी आदम जात।।
वर्तमान में सबसे ज्यादा कविता जिस विषय पर लिखी जा रही है, वह विषय है बेटी, बेटी के प्रति वे अपनी अभिव्यक्ति को शब्दों का जामा पहनाते हो कहते हैं-
गणित दुई की एक-सी, पीहर या ससुराल।
बिटिया हल करती रही, दोनों जगह सवाल।।
इस विषय पर 15
दोहे लिखे हैं, जो पाठकों की आँखों में पानी ला देंगे। गांव शीर्षक से कृति में 13 दोहे हैं। जिनमें गांव के शहर बनने की पीड़ा और
पुरातन गाँव का स्वरूप है। इन दोहों मे कुछ ऐसे शब्द पढ़ने को मिलते हैं जो आज के
शहरी वातावरण में लुप्तप्राय हो चुके हैं। शहरी समाज या कहे कि शहरी सभ्यता का इन
शब्दों से दूर-दूर तक का वास्ता नहीं है। ढोडरियाजी पुनः गाँव ले जाना चाहते पाठकों
को वे लिखते है-
परहैण्डी, पनघट सजे, जगे अलगनी भाग।
हम से बतिया ने लगे, फिर चूल्हे की आग।।
काँकड़ से पहुंची नजर, ज्यों ही मेरे गाँव।
अगवानी को आ गई, यादे नंगे पाँव।।
नदिया का संगीत में विभिन्न ऋतुओं, त्यौहारों,जीवन के विभिन्न प्रसंगों पर केन्द्रीत दोहे है। साथ ही रति भाव से ओतप्रोत श्रंगार रस में भींगे दोहे भी बहुत शालिन शब्दों में ढोडरियाजी ने कहे है। दोहों की बात हो और कबीर का सुफियाना दार्शनिक अंदाज न दिखे तो बात अधुरी लगती है। जीवन का आधार, होगा वहीं हिसाब,कैसे खोजूँ राम,यक्ष प्रश्न जैसे शीर्षक के साथ दार्शनिक दोहे इस कृति को एक चिंतनशील कृति निरुपित करते है। कृति के सारे दोहे कुछ न कुछ कहते है। हर विषय रूचिकर है। सामयिक है। हॉ कुछ जगह शब्दों का दोहराव जरूर पाठकों पसंद न भी आए पर रचनाकार की प्रतिभा को दर्शाता है। जिनमें शब्द वहीं है पर बात हर जगह अलग है। बोधि प्रकाशन ने कृति को आकर्षक रूप में पाठकों तक पहुंचाया है। यह कृति विषय के अनुसार जनचेतना जगाती कृति है। पाठकों को अपने भूतकाल में झांकने को विवश करती है। हम कैसे थे, कैसे हो गये ये सोचने पर मजबूर करेगी। एक चिंतनशील कृति समाज में लाने के लिए ढोडरियाजी को साधुवाद... बधाई।
चर्चाकार
-संदीप सृजन
-संदीप सृजन
संपादक- शाश्वत सृजन
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