अख़बार रद्दी कर गया विकास (व्यंग्य)


सुबह का अखबार शाम को रद्दी हो जाता है यह तय है पर इस बार अखबार सुबह-सुबह ही रद्दी हो गया। ये चंदू भैया के जीवन में किसी हादसे से कम नहीं है। पूरे चार रुपये का अखबार चंदू भैया को लेना पड़ रहा है। वो भी मजबूरी में। क्योंकि बचपन से ही चंदु भैया को तंबाखू और बीड़ी मांगने की आदत रही। उनने सदा से ही मांग कर ही अखबार पढ़ा है। पर कोरोना के कारण लोग कोई भी मांगी हुई चीज दे नहीं रहे है। मांगने जाए तो भी पड़ोसी मुंह खोलकर इंकार कर देते है और कहते है कि कोरोना के कारण वे नहीं दे पाएंगे। माफ करे।

पहले तो पड़ोसियों का यह व्यवहार चंदू भैया को थोड़ा अटपटा लगा पर आखिर में मन मारकर उन्होंने एक अखबार की बंदी लगवा ही ली। पर अखबार वो मंगवाते जिसमें पेज ज्यादा हो और दाम कम हो। पर मुए लॉकडाउन के कारण सारे अखबारों ने दाम तो वही रखे पर पेज कम दिए। जिसके कारण रद्दी कम बैठ रही है और चंदू भैया अखबार से होने वाली आवक जावक का हिसाब लगाते हुए वैसे ही तनाव में रहते है। उन्हें पता है कि जितने रुपये वे हॉकर को देंगे उसका पच्चीस प्रतिशत ही कबाड़ी उनको देगा। याने पचहत्तर प्रतिशत नुकसान तय है। पर करे क्या आदत जो पड़ गई है।

आज तो चंदु भैया का तनाव और ज्यादा बढ़ गया। सवेरे-सवेरे अखबार में विकास कथा पढ़ रहे थे कि इतने में टीवी पर समाचार आ गया कि विकास की कथा में एक और नया पृष्ठ जुड़ गया है। विकास हमेशा आगे की ओर दौड़ता था। और रोज नया इतिहास लिखता था। कहते है जो दौड़ता है उसके पीछे भी कुछ लोग दौड़ते है, टांग खीचने के लिए। पर इस पृष्ठ में दौड़ने वाले विकास की कहानी में दौड़ के साथ ठहराव वाला भाग बड़ा रोचक और रोमांचक था। टांग खींचने वाली बात तो कहीं थी ही नहीं, बल्कि विकास खुद अपनी टांग लम्बी किए खड़ा हो गया। यही बात उसकी स्टोरी में और सस्पेंस ला रही थी। और चंदू भैया का रोमांच बढ़ता जा रहा था। विकास गया तो गया अखबार पढ़ने का सब मजा किरकिरा कर गया।

महाकाल शरण में आया था विकास पर लगता है महाकाल पर भरोसा नहीं था वरना वो दौड़ता नहीं तो जीवन छोड़ता नहीं और अपनी कहानी में अंतिम पृष्ठ जोड़ता नहीं। पर विकास न गिरता तो कईं और नीचे गिर जाते। विकास जिस रफ्तार से आगे बढ़ा था वो किस्सा किसी हिट फिल्म से कम नहीं था। बहुत ही रस आ रहा था विकास की गाथा को पढ़ने में, विकास की गाथा में विनाश ही विनाश का विकास था। सफेद, लाल, भगवा, खाकी सारे रंग विकास के रंग में रंगे थे। विकास का होना इन सब रंगों को बदरंग कर सकता था। बस यहीं एक भय विकास के विनाश का कारण बन गया। विकास गया तो गया पर चंदू भैया का शुक्रवार का अखबार रद्दी कर गया। और शनिवार को ताजा समाचार की जगह सत्यकथा पढ़ने को मजबूर कर गया।

-संदीप सृजन

संपादक-शाश्वत सृजन

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