दबंगता से लिखे व्यंग्यों का संग्रह -मिर्ची लगी तो मैं क्या करूँ?

 


डॉ. महेंद्र अग्रवाल एक ऐसा नाम जो गीत, ग़ज़ल के तो उस्ताद के रूप में तो जाना ही जाता है। व्यंग्य के अखाड़े में भी वे उस्ताद से कम नहीं है। वे दबंगता के साथ खुला लिखते है, कटाक्ष करते है, तभी तो उनने अपने हाल ही में प्रकाशित व्यंग्य संग्रह का नाम दिया ‘मिर्ची लगी तो मैं क्या करूँ’ है।

व्यंग्य की भाषा व्यंजना की होती है। और अपने मारक प्रयोग से सामने वाले को घायल जरुर करती है। व्यंग्य जिस पर केन्द्रीत है वो बहुत जल्दी व्यंग्य को मार को बहुत आसानी से समझ लेता है। और चोर की दाढ़ी में तिनका वाले हालात में रहता है। मिर्ची लगी तो मैं क्या करूँ में शामिल 27 व्यंग्य-रचनाओं में व्यंग्य का तीखापन पता नहीं किन-किन को लगेगा और कौन-कौन सी-सी करेगा। पर हॉ जिन पाठकों तीखा पसंद है,चटखारें पसंद है वे जरुर इस कृति का मजा लेंगे। ये भरोसा है क्योंकि व्यंग्यों के विषय और पात्र रोचक ही नहीं प्रभावी भी है।
व्यंग्यकार - डॉ महेन्द्र अग्रवाल

इस कृति के सारे पात्र या विषय कोरी कल्पना नहीं है, यथार्थ है। जो घटनाएँ रोचक किस्सों में लपेट कर डॉ महेन्द्र अग्रवाल जी ने अपने तीखे व्यंग्यों के माध्यम से विषय अनुसार क़लम बद्ध की है वे सब कभी न कभी हमारे देश की राजनीति में, समाज में या साहित्य जगत में घट चुकी है। या आज भी घट रही है।

व्यंग्य के विषय व्यंग्य की भूमिका जैसे होते है, ठीक वैसे जैसे किताब की भूमिका से किताब में क्या है ये पता चल जाता है, उसी तरह डॉ महेन्द्र अग्रवाल जी के व्यंग्य के विषय उन व्यंग्यों को पढ़ने को मजबूर कर देते है। जैसे नेताजी न्यारे, शांतिपूर्ण चुनाव, कवि का उतावलापन, कोप भवन,डोपिंग टेस्ट, मांगलिक लेनदेन, पत्र लेखक व्यंग्यकार, राजनीति, चुनाव और साहित्यकार, साहित्य और स्वाभिमान आदि लगभग सभी विषय पाठकों को चुम्बक की तरह खिंचते है।

विषय के साथ व्यंग्य के नवनीत की बात करे तो कई बेहतरीन जुमले व्यंग्य के स्वाद को बढ़ा कर तीखी मिर्ची का काम कर रहे है।जैसे-

*वे पहुंचे हुए नेता है। मतलब उनकी पहुंच में सब हैं किंतु वे किसी की पहुंच में नहीं है।

* कई बार सम्मान समारोह में शाल की जगह हल्दी की गांठ मिलने भर से वे बल्लियां उछालने लगते है।

*भाई भाई के संबंधो में भी नई तरह की युगीन गर्माहट आ रही है। घर का मुखिया एक को मनाता है तो दूसरा रूठ जाता है। जैसे परिवार का सदस्य न हो, विधायक हो।

*साहित्यकारों का भी डोपिंग टेस्ट होना चाहिए।किसी भी कार्यक्रम से पूर्व अध्यक्ष, मुख्यअतिथि सहित मंचासीन व्यक्तियों, वक्ताओं का यदि डोपिंग टेस्ट हो तो कैसै रहे?

*चुनावों के समय दिन भी बदलते हैं और लोगों के दिल भी; दिल बदलने से दल भी बदलता है और फिर दिन तो बदल ही जाते हैं।

*मजबूरी का नाम महात्मा गांधी है। क्यों? क्योंकि उन्हें न चाहने के बाद भी सार्वजनिक रूप से बार बार याद जो करना पड़ता है। साल में दो बार उनकी समाधी पर जाना पड़ता है।

*सूचना एवं प्रसारण मंत्री ऐसे होते है कि उन्हें खुद के हटाए जाने की सूचना नहीं होती।

*जैसे बच्चे की शादी सभी पोते की कामना से करते हैं और कहते है कि हम तो अपना फर्ज निभा रहे हैं।

*रचनाकार कितना भी प्रयास करे किंतु उसकी कुंठाएं उसकी रचना में कहीं न कहीं सिर उठा लेती है।

*कुत्ता वफादार होता है मगर जरुरी नहीं कि हर बार कुत्ता ही वफादार हो, कभी-कभी राजनीति में वफादार भी कुत्ता निकल जाता है और बनी हुई सरकारें बिगाड़ देता है।

व्यंग्य के घोल में लपेटे और भी कई जुमले है जो सच बयानी करते है। जैसे भजिए को जुबान पर रखे बगैर उसके स्वाद का पता नहीं चलता, उसके तीखेपन का पता नहीं चलता वैसे ही बगैर इस कृति को पढ़े इस कृति के रहस्यमय व्यंग्यों को समझा नहीं जा सकता है।

डॉ महेन्द्र अग्रवाल जी के पहले भी कई व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हो चुके है। उनके लेखन की विशेषता है कि वे लेखन दोहराव से मुक्त है। वे ही सपाट बयानी भरे वाक्य नहीं लिखते है। बड़े वाक्यों में लपेट-लपेट कर बात कहते है। साथ ही मुहावरों और शेरो शायरी के साथ व्यंग्य का जायका पाठकों के लिए तैयार करते है। जो रस भंग नहीं होने देते।

इस बेहतरीन व्यंग्य संग्रह को जे.टी.एम. पब्लिकेशन दिल्ली ने बहुत ही बढ़िया कागज़ पर प्रकाशित किया है। आवरण से अंत सब अच्छा है। एक अच्छा और सच्चा व्यंग्य संग्रह पाठकों को सौपने के लिए डॉ महेन्द्र अग्रवाल जी को बधाई।

कृति -मिर्ची लगी तो मैं क्या करूं (व्यंग्य संग्रह)
लेखक - डॉ. महेंद्र अग्रवाल ,
प्रकाशक -जे. टी. एस. पब्लिकेशंस, विजय पार्क, दिल्ली - 110053
पृष्ठ - 141,
मूल्य - सजिल्द संस्करण 500 रु.

चर्चाकार - संदीप सृजन
sandipsrijan.ujjain@gmail.com 

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