एक ग़ज़ल
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बरसों बाद उजाला देखा
रोटी-भूख-निवाला देखा
कैकई से जब मिली मंथरा
राम का देश निकाला देखा
मिलेगी उनको मंजिल कैसी
जिसने पाँव का छाला देखा
झूठ शहर में चल निकला है
सच के मुँह पर ताला देखा
सत्ता का जब हुआ स्वयंवर
तन गोरा मन काला देखा
@संदीप सृजन
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